सड़को पर चढ़कर हर साल चिढ़ाता पानी (Teasing water every year by climbing the roads)
शहरी बाढ़ भारत में मानसून की एक खासियत बन गई है। इससे हर साल हमारे शहर जूझते हैं। रास्ते नदी बन जाते हैं, रेलवे स्टेशन और बस अड्डे पानी में डूबे रहते हैं, संचार बाधित हो जाता है। पड़ोस में जाना भी मुश्किल हो जाता है ।कुछ जगहों पर लोग हफ्तों तक पानी में घिरे रहते हैं। इस अनिश्चित, अत्यधिक और बेमौसम बारिश का कारण जलवायु परिवर्तन
माना जा सकता है। जिसका असर हमारे समाज के सभी वर्गों तथा निम्न तबकों पर पड़ता है। मगर इसके लिए हमारी मूर्खता भी कम जिम्मेदार नहीं है।
पहली मूर्खता हम किसी जमीन पर यह जानें बिना हरित क्षेत्र का विकास करते हैं की वहां पूर्व में कृषि की क्या स्थिति थी?
उस भूमि को पहले समतल किया जाता हैं। फिर उसकी परिस्थितिकी छीन ली जाती है। और अंत में उसे अचल सम्पत्ति बना दिया जाता हैं। सर्वेक्षण और रिकॉर्ड रखने की प्रक्रियाओं में लगातार फेरबदल करने से पहले उसे बंजर भूमि और फिर "प्राइम रियल एस्टेट" के रूप में ब्रांडिंग करने में मदद मिलती हैं। आज हमारे पास बेशक उचित कीमत पर ड्रोन से सर्वेक्षण करने की क्षमता है। पर हमारी पहुंच आधी सदी पहले किए गए भूसंपति सरेक्षण और 1970 के दशक में हवाई जहाज से ली गई तस्वीरों तक सीमित है। कुछ दशक पहले सीमा चिन्हों के साथ तैयार नक्शें भी आज हमारे पास नहीं है।इन सबके बावजूद हम गेटेड सोसायटी, अपार्टमेंट व् बिजनेस संपत्त्यो में इजाफा देखते हैं।
दूसरी हमें यह भरोसा हो गया है कि हमारी सभी समस्याओं का समाधान निर्माण व विनिर्माण संबंधी प्रौद्योगिकिया और तेज़ी के साथ विस्तार लेती सूचना प्रौद्योगिकी कर सकती हैं।
इसलिए शहरी योजना पर पुनर्विचार करने के बजाय हम उन प्रोधोगिकियां की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, जो बाढ़ की भविष्यवाणी कर सकती हैं और जलजमाव जल्दी खत्म कर सकती हैं। इनमे से किसी किसी का अब तक उपयोगी नतीजा नहीं निकल सका है। शहरी बाढ़ एक अत्यधिक स्थानियाकृत परिघटना है। जिसकी दशा दिशा
उसी तरह से साल दर साल बदलती रहती है, जिस तरह से अचल संपत्ति का ढांचा बदलता रहता है।
तीसरी लोगो के आसमान रिहाइस ने अत्यधिक अस्थिर
शहरी संरचनाओं को जन्म दिया है, जो मानसून की पहली बारिश में ही दम तोड़ने लगती हैं।
जिन लोगों का स्थाई ठिकाना नहीं, वे संपत्ति में निवेश करने से घबराते हैं। इसी तरह, कई बस्तियां दशकों से खराब दशा में है। वहां लोग ऐसी सामग्रीयों का उपयोग करते हैं। जो उन्हें नाम मात्र का सुरक्षा देती हैं। जैसें एस्बेस्टस और प्लास्टिक। प्रकृति के सामने ये चीजें जल्द ही दम तोड़ देती हैं।
चौथी आपदाओं को लेकर हमारा नजरिया राहत और पुनर्वास पर केंद्रित रहा है।
जाहिर है, हमें शहरों को बचाने के लिए विशेष कदम उठाने पड़ेंगे। सबसे पहले हमें " वेटलैंड कमीशन" का गठन करना होगा। हमें भूमि का मूल चरित्र फिर से हासिल करने की तरफ ध्यान लगाना चाहिए। भारत के शहरों में यह रुझान व्यापक तौर पर दिखने लगा है कि तटीय इलाकों या जल के नजदीकी क्षेत्रों को निजी संपत्ति बना लिया जाए। यह काम इस अदूरदर्शी सोच के साथ किया जाता है कि उससे उस इलाके के बेहतर रखरखाव में मदद मिलेगी। वास्तव में, संपत्ति चाहैं सरकार की हो या निजी, उसकी सीमाएं बांध दी जाती हैं , जबकि जल का स्तर बदलता रहता है। लिहाजा हमें वेटलैंड, यानि आद्रभूमि घास का मैदान और दलदली इलाका बनाकर इसका इज्जत करना चाहिए और संपत्ति व गैर सम्पत्ति के रूप में जमीन को बाटकर उसे संरक्षित करना चाहिए। यह काम वेटलैंड कमीशन बनाकर किया जा सकता है। जरूरी यह भी है कि इस आयोग के पास जरूरी कार्यकारी, राजस्व और न्यायिक शक्तियां हों।
दूसरा कदम है "स्पंज सिटी मिशन"।
हमें स्थान आधारित दृष्टिकोण अपनाने की कहीं ज्यादा जरूरत है। शहरी क्षेत्रों में बाढ़ तब आती है जब बांध टूट जाता हैं। और झीलों अथवा तालाबों से पानी का अत्यधिक बहाव शुरू हो जाता हैं। बादल फटने और चक्रवात जैसी मौसम घटनाओं के कारण भी जलजमाव हों जाता हैं। हालांकि, बाढ़ की वजह से आमतौर पर स्थानिय बुनियादी दांचे की विफलता और उस तरह के निर्माण कार्य है। जो पानी को अवशोषित नहीं कर पाते हैं। इसका समाधान " पड़ोस में प्राकृतिक क्षेत्र" हो सकता है। जिसमें स्थानीय सामुदायिक ज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं। इसके लिए हम स्पंज सिटी मिशन को गति दे सकते है। जिसका मकसद शहरी क्षेत्र को ऐसा रूप देना है कि वहां बारिश का पानी अवशोषित हो सके और बाढ़ को आने से रोका जा सके।
तीसरा " मेट्रोपोलिटन प्लानिंग कमिटी" ।
और अंतिम उपाय है वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना।
हमें विज्ञान पर भरोसा करना होगा, पदार्थों का विज्ञान हों, जलवायु का विज्ञान हों या जीवन का विज्ञान । जलवायु परिवर्तन मानव जीवन के अस्तित्व के लिए चुनौती हैं। हमें इस पर संजीदगी से ध्यान देना होगा। चाहै इसके लिए अपने तमाम साधनों का इस्तेमाल क्यों न करना पड़े।