सिंधु घाटी सभ्यता की जानकारी हिंदी में
भारतवर्ष में भी सिन्धु नदी की घाटी में एक उच्च कोटि की सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ था। इस सभ्यता को 'सिन्धुघाटी की सभ्यता' या 'सैन्धव सभ्यता' कहते हैं। सिन्ध, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र आदि अनेक स्थलों की खुदाई में इस सभ्यता के अवशेष मिले हैं। पहले वैदिक सभ्यता को ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता माना जाता था। लेकिन मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि स्थानों की खुदाई में प्राप्त वस्तुओं के अवशेषों से यह प्रमाणित हो गया कि आर्यों के आगमन के पहले ही सिन्धु नदी की घाटी में एक उच्च कोटि की सभ्यता विकसित हो चुकी थी। इस सभ्यता से सम्बन्धित हमारी जानकारी मुख्यतः पुरातात्विक प्रमाणों पर आधारित है।
नामकरण: सिन्धुघाटी की सभ्यता के लिए तीन नामों का प्रयोग किया जाता है सिन्धु सभ्यता, सिन्धुघाटी की सभ्यता और हड़प्पा सभ्यता। इन तीनों शब्दावली का एक ही अर्थ है। प्रारम्भ में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के बारे में पता चला था। इसलिए इस सभ्यता का संकेत देने के लिए 'सिन्धुघाटी की सभ्यता' जैसे शब्दावली का प्रयोग किया गया। बाद में सभ्यता का क्षेत्र अनेक स्थानों की खुदाई के कारण विस्तृत हो गया, तब हड़प्पा, जहाँ प्रारम्भ में इस सभ्यता के अवशेष मिले थे, के नाम पर इस सभ्यता का नामकरण 'हड़प्पा सभ्यता' कर दिया गया।
सभ्यता का क्षेत्र :
पुरातात्त्विक खोजों और उत्खननों के परिणामस्वरूप सिन्धुघाटी की सभ्यता का प्रसार क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो गया है। पश्चिमी पंजाब और सिन्ध में यह सभ्यता समान रूप से फैली हुई थी। पूरब में काठियावाड़ से पश्चिम में मकरान तक यह सभ्यता फैली हुई थी। राजस्थान में कालीबंगा और गुजरात में लोथल में इस सभ्यता के अवशेष मिले हैं। कच्छ में सुरकोतदा में भी अवशेष मिला है। आलमगीरपुर, भगतराव और बहावलपुर में भी सभ्यता से सम्बद्ध स्थलों का पता चला है। हरियाणा में बनावली, मीताल और राखीगढ़ प्रमुख स्थल हैं। बलूचिस्तान में सुतकाजेन-डोर और बालाकोट महत्त्वपूर्ण स्थल हैं । उत्तरी में डाबरकोट एक महत्त्वपूर्ण स्थल है। उत्तर पश्चिमी सीमान्त में सारी सामग्री गोमल घाटी में केन्द्रित है । सिन्धु नदी के बाढ़ वाले मैदान के ऊपर अनेक स्थल हैं जैसे-मोहनजोदड़ो, चान्हूदड़ो। मोहनजोदड़ो पाकिस्तान के लरकाना जिले में स्थित है । पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल स्थल हैं। चंडीगढ़ नगर में भी हड़प्पा संस्कृति के निक्षेप पाये गये हैं। गंगा-यमुना दोआब हड़प्पा है जो रावी नदी के किनारे है। पूर्वी पंजाब में रोपड़ और संघोल महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। चंडीगढ़ नगर में भी हड़प्पा संस्कृति के निक्षेप पाए गए हैं। गंगा यमुना दोआब के ऊपरी हिस्से में भी अनेक स्थल हैं। जम्मू-क्षेत्र में माँदा प्रमुख स्थल है । संक्षेप में, सिन्धु-सभ्यता पश्चिम में मकरान तट-प्रदेश पर सुतकाजेन-डोर से पूरब में आलमगीरपुर रुक और उत्तर में जम्मू में माँदा से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र में प्रवर नदी की घाटी में दायमाबाद तक फैली हुई थी।
समय का निर्धारण :
सिन्धुघाटी की सभ्यता के समय-निर्धारण के सम्बन्ध में भी इतिहासकारों में मतभेद है। आधुनिक समय में सिन्धु-सभ्यता का काल रेडियो कार्बन-विधि से निर्धारित किया गया है। इसके अनुसार, सिंधु सभ्यता का काल 2500 ईo पू o से 1800 ई o पू o माना जाता है।
सिन्धु सभ्यता के निर्माता :
यह एक अत्यन्त विवादाग्रस्त प्रश्न है कि सिन्धु सभ्यता के निर्माता कौन थे ? अधिकतर विदेशी विद्वानों का मत है कि सिन्धुघाटी की सभ्यता मेसोपोटामिया की सभ्यता की एक औपनिवेशिक शाखा थी जिसे सुमेर के निवासी ही सिन्धु-क्षेत्र में ला थे । कुछ विद्वान सिन्धु-सभ्यता का मूल ईरानी- बलूची संस्कृति को मानते हैं। लेकिन कुछ विद्वान भारतीयों को ही सिन्धु सभ्यता का निर्माता बतलाते हैं। बलूचिस्तान, सिन्न तथा पंजाब के उत्खनन से स्पष्ट हो गया है कि मूल रूप से क्षेत्रीय आधार पर ही सिंधु नदी की घाटी में सभ्य जीवन की शुरूआत हुई थी। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि द्रविड़ लोग सिन्धु-सभ्यता के निर्माता थे। यह मत सर्वमान्य नहीं है। सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध स्थलों की खुदाई में प्राप्त अस्थिपंजरों और प्रतिमा-मस्तकों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सिन्धु सभ्यता के निर्माता मिश्रित जाति के लोग थे।
सिन्धुघाटी की सभ्यता भी धातुयुगीन सभ्यता थी। इसे 'ताम्रयुगीन' सभ्यता भी कहा जाता है क्योंकि ताँबे के हथियारों एवं अन्य वस्तुओं की बहुतायत थी। पत्थर के भी अस्त्र-शस्त्र बनाये जाते थे। बाद में वृहत् पैमाने पर कौसे के औजारों और अन्य वस्तुओं का निर्माण होने लगा। काँसे की प्रधानता के कारण ही इस सभ्यता को कांस्यकालीन सभ्यता भी कहते हैं।
(II) शान्तिमूलक सभ्यता
सिन्धुघाटी की सभ्यता शान्तिमूलक सभ्यता थी। खुदाई में साम्राज्य, युद्ध और सैन्य-संगठन सम्बन्धी कोई वस्तु नहीं मिली है। अस्त्र-शस्त्र क सर्वथा अभाव है। यहाँ तक कि राजाओं के नाम भी नहीं मिलते हैं।
(iii) नगरीय सभ्यता :
सिन्धु सभ्यता व्यापार-प्रधान और शहरी थी। बड़े-बड़े नगरों की स्थापना की गयी थी। ये उद्योग-धन्धे और व्यापार के केन्द्र थे। नगर प्रशासनिक केन्द्र भी थे लोग नागरिक जीवन व्यतीत करते थे और प्रत्येक वस्तु के उपयोगिता की दृष्टि से देखते थे नगर-निर्माण और भवन-निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया गया था विदेशों से भी व्यापार-सम्बन्ध स्थापित किया गया था
(iv) लोकतांत्रिक सभ्यता
विशाल भवन और स्नानागार सिन्धुघाटी के लोगों के सामूहिक जीवन के द्योतक हैं। अतः कुछ लोगों का कहना है कि यह सभ्यत लोकतांत्रिक थी, क्योंकि राजाओं के अस्तित्व का पता नहीं चलता ।
सिन्धुघाटी सभ्यता के विविध पहलू :
आर्थिक जीवन:
(i) कृषि :
लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती था। लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर इत्यादि की खेती करते थे। अनाजों को बड़े-बड़े गोदामों में रखा जाता था। कपास की खेती भी सम्भवतः पहले-पहल यहीं शुरू हुई ।
(ii) पशु-पालन
पशु-पालन लोगों की आजीविका का दूसरा प्रमुख साधन था। बैल, भैंस, बकरे, भेड़, सुअर, कुत्ते, बिल्ली, ऊँट, गदहे और हाथी उनके पालतू जानवर थे।
(iii) उद्योग-धन्धे वस्त्र-निर्माण :
सिन्धुघाटी के निवासी वस्त्र-निर्माणकला से परिचित थे। वहाँ कपास की खेती होती थी । चर्खे से सूत तैयार करना उस समय का एक घरेलू व्यवसाय था। वे लोग सम्भवतः ऊनी और रेशमी कपड़ों का निर्माण करते थे। इराक में सूती कपड़ों को 'सिन्धु' के नाम से पुकारा जाता था। लगता है, कपड़ों का व्यापार दूर-दूर के देशों से होता था ।
बरतन-निर्माण :
बरतन बनाना भी एक मुख्य व्यवसाय था । खण्डहरों में मिट्टी
के अनेक छोटे-बड़े बरतन मिले हैं जो कुम्हार के चाक पर बने प्रतीत होते हैं। बरतनों पर अनेक तरह के चिह्न अंकित हैं और इनको एक खास तरह के पालिश से चमकाया गया है ।
धातु का उपयोग :
यहाँ के लुहार टीन तथा ताँबा मिलाकर काँसा तैयार करते थे तथा काँसे के बरतन भी बनाते थे । यहाँ धातुओं के अन्य औजार जैसे छेनी, चाकू, छूरे, बरछे आदि मिले हैं। सोनार सोना-चाँदी के सुन्दर आभूषण बनाते थे। सिन्धुघाटी की सभ्यता में सोनार, लोहार, कुम्हार, जौहरी आदि के व्यवसाय मौजूद थे।
यातायात
स्पष्ट है कि इन उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता होती होगी जो इस स्थान पर नहीं मिलते थे। अतः इनको दूर के प्रदेशों से लाना पड़ता होगा। बैलगाड़ी और नाव के चिह्न मिले हैं। अतएव यातायात के इन साधनों का क वस्तु उपयोग होता होगा ।
(iv) व्यापार :
बाहर से इन चीजों को मंगाने के लिए नियमित व्यापार आवश्यक था। ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे यह पता चलता है कि बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, फारस आदि देशों से व्यापारिक सम्बन्ध रहा होगा। मोहनजोदड़ो की कुछ मुहरें सुमेरिया में मिली हैं और वहाँ के साहित्य में भी सिन्ध घाटी के क्षेत्रों, भाषा एवं व्यापारियों की चर्चा मिली हैं। इन बातों से विदेशी व्यापार का होना साबित हो जाता है। फिर सैनिक सभ्यता में व्यापार के कुछ आवश्यक तत्त्व भी मिले हैं। जैसे तौल, माप, मुद्रा तथा विनिमय के साधन । बाट और तराजू का इस्तेमाल होता था ।
सामाजिक जीवन
व्यवसाय के आधार पर सिन्धुघाटी के समाज को चार वर्गों में विभाजित किया जाता है— बुद्धिजीवी, योद्धा, व्यापारी और श्रमजीवी । परिवार समाज की इकाई था। समाज मातृसत्तात्मक था । समाज में अनेक पेशे के लोग रहते थे जैसे पुजारी, राजकर्मचारी, जादूगर, ज्योतिषी, वैध, व्यवसायी, कुम्हार, बढ़ई, सुनार आदि।
भोजन एवं रहन-सहन : सिन्धुघाटी के निवासी शाकाहारी और मांसाहारी दोनों थे। वे खजूर, तरबूजा, नींबू, दाल, सब्जी, दूध, घी, मिठाई, रोटी और छुहारा खाते थे। कुछ लोग सूअर, गाय, भेड़ तथा दूसरे जानवरों के मांस खाते थे । वे मछली और
अण्डे भी खाते थे । मांस काटने के लिए पत्थर के औजार का उपयोग होता था ।
कटोरे कोरियाँ, रिकावियाँ, कलश, सुराही, प्याला, चम्मच, थाली और तश्तरी का भी प्रचलन था । घर का प्रमुख कमरा मेज, कुर्सियों एवं स्टूलों से सुसज्जित रहता था। लकड़ी की चारपाई सोने के काम आती थी। रोशनी के लिए मिट्टी के लैम्प, सामान ढोने के लिए लकड़ी या बेंत की टोकरियों का व्यवहार भी होता था। फर्श पर बैठने के लिए चटाई व्यवहार में लाया जाता था। पलंग का भी व्यवहार किया जाता था।
औषधि : शिलाजित का व्यवहार औषधि के रूप में होता था । हड्डी के चूर्ण का व्यवहार भी दवा में होता था। हरिण और गैंडे के सींग से भी औषधि बनती थी। मूँगा और नीम की पत्ती भी दवा के काम में आते थे।
बेश-भूषा
सिन्धु घाटी के निवासी गर्मी और सर्दी ऋतुओं के अनुसार ऊनी और सूती वस्त्र पहनते थे । वहाँ प्रत्येक घर में सूत कातने की प्रथा थी। मोहनजोदड़ो में पर्याप्त संख्या में सूत लपेटनेवाला परता मिला है। सिन्धुघाटी के निवासी सिला हुआ वस्त्र पहनते थे। मोहनजोदड़ो के खण्डहरों में बहुत-सी सूइयाँ मिली हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही टोपियों का व्यवहार करते थे। स्त्रियाँ अधोवस्त्र पहनती थीं। वे कमर में मेखला पहनती थीं स्त्रियाँ सिर पर एक विशेष परिधान धारण करती थीं, जो पंखे की भाँति पीछे की ओर उठा रहता था ।
आमोद-प्रमोद
नृत्य, संगीत, खेल-कूद आमोद-प्रमोद के साधन थे। बहुत जगह नर्तकी की मूर्तियों मिली हैं। तबले ढोल की आकृति की वस्तुएँ भी मिली हैं। पशु युद्ध भी मनोरंजन का एक साधन था। लोग जुआ और गोलियाँ भी खेलते थे। शिकार करना और मछली पकड़ना मनोरंजन का साधन था। बच्चे खिलौने से मन बहलाते थे। मिट्टी के खिलौने बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं खिलौना बनाने के लिए ताँबे और पत्थर का भी प्रयोग किया जाता था।
श्रृंगार :
सिन्धुघाटी के लोग अपना केश अनेक प्रकार से सजाते थे। कैश सँवारकर पीछे की ओर जूड़ा बाँध दिया जाता था अथवा चोटियों में गूँथ दिया जाता था। पुरुष भी लम्बे-लम्बे बाल रखते थे। मूँछ रखने का रिवाज नहीं था और ओंठ का ऊपरी भाग साफ रखा जाता था। किन्तु छोटी-छोटी दाढ़ी रखने की प्रथा थी। सिर मूँडने के लिए उस्तरे का प्रयोग होता था । पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक श्रृंगारप्रिय होती थीं । वे कंधी, काजल, तेल आदि का व्यवहार करती थीं। हड़प्पा में बोतल जैसा एक बरतन मिला है जिसमें काले रंग का एक तरल पदार्थ है। शायद यह सुरमा जैसा कोई पदार्थ था जिसका प्रयोग श्रृंगार में होता था ।
आभूषण :
आभूषण का प्रयोग बड़े पैमाने पर होता था। धनी लोग सोना-चाँदी तथा हीरे-जवाहरात के आभूषण पहनते थे किन्तु गरीब लोग ताँबे और हड्डी के आभूषण व्यवहार करते थे। खुदाई में केयूर, कंठहार, कुंडल, कंगन और कड़ों के साथ-साथ अँगूठियाँ भी मिली हैं। धनी लोग कीमती वस्त्र पहनते थे। स्त्रियाँ आभूषण की विशेष रूप से शौकीन थीं। पहुँचा, गला, भुजा, नाक, कान और कमर में आभूषण पहनने का रिवाज अधिक था। चूड़ियों का भी प्रचार था। अंगूठियाँ अधिकतर ताँबा की बनती थीं।
अस्त्र-शस्त्र :
अस्त्र-शस्त्र ताँबे और काँसे के बनाये जाते थे । धनुष-वाण उनका प्रधान हथियार था । परशु कटार, भाला और पत्थर फेंकनेवाले फंदों का भी प्रयोग होता था हथियारों का प्रयोग युद्ध तथा शिकार दोनों के लिए होता था ।
मृतक-संस्कार :
ये लोग मृतकों की क्रिया तीन प्रकार से करते थे। कुछ लोग शव को गाड़ देते थे, कुछ खुला छोड़ देते थे और कुछ शव को जला देते थे तथा भस्म को किसी बरतन में रखकर जमीन में गाड़ देते थे ।
धार्मिक जीवन :
मातृ देवी की पूजा :
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि अनेक स्थलों की खुदाई में अनेक स्त्री-मूर्तियाँ मिली हैं। एक चित्र में स्त्री के पेट से एक पौधा निकलता हुआ दिखलाया गया है । इससे यह अनुमान लगाया गया है कि यह पृथ्वी देवी है, जिसका सम्बन्ध पौधों की उत्पत्ति और विकास से था । ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि भारत में शक्ति-पूजा, मातृ-पूजा और देवी पूजा इसी समय से शुरू हुई ।
शिव-पूजा :
खुदाई में एक पुरुष देवता का चित्र मिला है। यह देवता नग्न है और पलथी मारकर ध्यानमग्न बैठा हुआ है। इसके चारों ओर हाथी, बाघ, भैंस और गैंडा हैं। आसन के नीचे दो हिरणें हैं। अनेक विद्वानों का मत हैं कि यह मूर्ति पशुपति शिव की है।
लिंग-पूजा :
खुदाई में बहुत-से लिंगाकार पत्थर मिले हैं। ये लिंग मिट्टी, पत्थर और सीप के बने हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सैन्धव-सभ्यता काल में लिंग की पूजा की प्रथा प्रचलित थी ।
पीपल की पूजा :
सिन्धुघाटी के निवासी वृक्ष की भी पूजा करते थे । वृक्षों में पीपल महत्त्वपूर्ण था । नीम, बबूल की भी पूजा होती थी । सिन्धुघाटी के निवासी नाग, सूर्य तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करते थे ।
पशु-पूजा:
पशु-पूजा भी प्रचलित थी। सबसे महत्त्वपूर्ण कूबड़दार साँढ़ (बसहा बैल) है जो शिव का वाहन माना जाता है ।
भूत-प्रेत में विश्वास :
लोगों को भूत-प्रेत में विश्वास था और वे अपनी रक्षा के लिए ताबीज का प्रयोग करते थे । वे जादू-टोना और तंत्र-मंत्र में भी विश्वास रखते थे। बहुत बड़ी संख्या में ताबीजों का मिलना, भारी संख्या में मूर्तियों का मिलना और लेखन कला का प्रचलित होना यह सिद्ध करता है कि यहाँ पुरोहितों का एक प्रभावशाली वर्ग रहा होगा ।
नगर-निर्माण योजना
सैन्धव-सभ्यता की नगर-निर्माण योजना बहुत ही उच्च कोटि की थी। शहर में मकानों का निर्माण योजना के अनुसार होता था। मकान छोटे और बड़े बनाये जाते थे। सुरक्षा के लिए नगर के चारों ओर दीवारें खड़ी की जाती थीं। मकान ईंट के बने होते थे। मकान प्रायः दुमंजिले होते थे और ऊपर जाने के लिए सीढ़ी बनी होती थी। मकान में रसोईघर और स्नान का कमरा बना होता था। आँगन और शौचालय का प्रबन्ध था ।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में दो प्रकार के मकान मिले हैं-एक अभिजात वर्ग के लिए और दूसरे जनसाधारण के लिए। सभी मकानों का निर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार होता था, इसलिए उनके ढाँचे में काफी समानता थी। अभिजात वर्ग का मकान दो मंजिला होता था। उनकी छतें लकड़ी और मिट्टी से पाटी जाती थीं। मिट्टी और चूने से पलस्तर होता था। मकान के निचले भाग में नौकर रहता था और ऊपरी भाग में मकान का मालिक रहता था। मकान में द्वार और खिड़कियों का भी प्रबंध रहता था। द्वार और खिड़की सड़क की ओर नहीं होती थीं। आँगन चौकोर होता था, जिसमें स्नानागार और कुएँ का प्रबन्ध रहता था। कुएँ पक्की ईंटों के बने होते थे । स्नानागार की सतह पर ईंटे बिछायी जाती थीं। मकान में आलमारियों, खूँटियों आदि का भी प्रबन्ध रहता था। मकान के आँगन में एक तरफ रसोईघर होता था।
नालियाँ
मकान तथा नगर को साफ रखने के लिए नालियों का प्रबन्ध किया गया था। वर्षा और घर का पानी बाहर निकलता था। प्रत्येक मकान की नाली को शहर के प्रमुख नाले से जोड़ दिया जाता था। नालियाँ पक्की ईटों की बनायी जाती। थीं। नालियों 9 इंच चौड़ी और 12 इंच गहरी होती थीं। वर्षा का पानी शहर से बाहर निकालने के लिए बड़ी-बड़ी नालियाँ बनायी जाती थीं। नालियों को ईंटों तथा पत्थरों से टैंक दिया जाता था। ऊपर की मंजिल का गंदा पानी नीचे लाने के लिए मिट्टी के पाइपों का प्रयोग किया जाता था ।
कुएँ का प्रबन्ध :
आसानी से जल प्राप्त करने के लिए सिन्धुघाटी के लोगों ने कुओं का प्रबन्ध किया था। खुदाई में ऐसे कुएँ मिले हैं जिनकी चौड़ाई 2 फीट से सात फीट है इन कुँओं के अतिरिक्त लोग अपने घरों में व्यक्तिगत प्रयोग के लिए भी कुएँ बनवाते थे । ।
सड़कें
सड़कें भी एक निश्चित योजना के अनुसार बनायी जाती थीं। मुख्य सड़के तीस फीट चौड़ी हैं। इन सड़कों को गलियों से मिलाया गया था ।
मजदूरों के मुहल्ले :
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में कुछ बस्तियाँ और मकान हैं ।जिनको मजदूरों का मुहल्ला कहा जा सकता है। नगर के ठीक बाहर एक तरह के बहुत-से छोटे मकान पाये गये हैं। यह अनुमान किया जाता है कि इन मकानों का निर्माण सम्भवतः मजदूरों के लिए किया गया था ।
सार्वजनिक भवन
खुदाई में कुछ ऐसे मकान मिले हैं जिनका निर्माण सार्वजनिक उपयोग के लिए किया गया था। मोहनजोदड़ो में एक विशाल स्नानागार मिला है। यह 180 फीट लम्बा तथा 108 फीट चौड़ा है। इसकी बाहर की दीवार 8 फीट मोटी है। इसमें एक जलाशय है जिसकी लम्बाई 39 फीट चौड़ाई 23 फीट और गहराई 8 फीट है । तालाब तक पहुँचने के लिए सुन्दर सीढ़ियों बनी हुई थीं। कपड़े बदलने के लिए कोठरी थी । इस स्नानागार के साथ एक गर्म पानी का हमाम (स्नानागार) भी था।
बाजार :
प्रत्येक नगर में एक बाजार की व्यवस्था थी जो नगरवासियों की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करता था । मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में सड़कों के पास कुछ ऐसे मकान मिले हैं जो दूकान के काम में आते होंगे। उनके साथ बड़े गोदाम भी थे।
कला-कौशल :
सिन्धु सभ्यता में लोग भवन-निर्माण-कला में अत्यन्त दक्ष थे। सीढ़ियों से युक्त पक्के के दुमंजिला मकान बना लेना उस समय के लिए आश्यर्च की बात है । इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय अभियंत्रण कला का काफी विकास हुआ था।
मूर्तिकला
उस समय मूर्ति-निर्माण की कला भी विकसित हो चुकी थी। मूर्तियों में भाव की अभिव्यक्ति हुई है। बहुत-सी मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं। नर्तकियों की मूर्तियों से स्पष्ट होता है कि वहाँ की मूर्ति कला काफी उन्नत थी
नृत्य और संगीत कला
खुदाई में अनेक नर्तकियों की मूर्तियों मिली है। इससे
यह साबित होता है कि वहाँ नृत्य कला का विकास हो चुका था। कई तरह के वाद्य यंत्र भी मिले हैं।
चित्रकला :
सिन्धु-घाटी के निवासी चित्रकला में निपुण थे। मुहरों पर सबसे अच्छी चित्रकारी साढ़ों और भैंसों की है। सौंदों का चित्र अत्यन्त सजीव और सुन्दर है।
लेखन कला
खुदाई में मुद्राओं, ताम्रपत्रों और मिट्टी के बरतनों पर कुछ लिखा मिला है जो अभी तक पढ़ा नहीं गया है। सम्भवतः सिन्धु घाटी के निवासी चित्रात्मक लिपि से परिचित थे। 500 मुहरें मिली हैं जिनपर भी कुछ लिखा हुआ है। लेख दायें से बायें लिखे गये हैं।
माप-तौल
यहाँ के निवासियों को अंकों का ज्ञान था। अधिकतर 16 का व्यवहार होता था लेकिन दशमलव से भी वे परिचित थे। वे तराजू और बाट का भी व्यवहार जानते थे।
पात्र-निर्माण-कला :
सिन्ध-घाटी के लोग मिट्टी के बरतन बनाने की कला में निपुण थे । बरतन सादे होते थे और चाक पर बनाये जाते थे । कुछ बरतनों पर चित्र बने हुए है।
कताई तथा रंगाई की कला :
खुदाई में टेकुओं की मेखलाएँ मिली हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सिन्धु-घाटी के लोग सूत कातने की कला में निपुण थे। कपड़ों की रंगाई में भी वे कुशल होते थे ।
मुहर-निर्माण-कला :
खुदाई में बहुत-सी मुहरें मिली हैं। ये मुहरें एक प्रकार पत्थर (Steatite) की बनी होती थीं। अधिकांश मुहरें वर्गाकार हैं जिनपर पशुओं के चित्र बने हैं।
धातु-कला :
धातुओं से आभूषण और भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनायी
थीं। सोना-चाँदी तथा ताँबे के आभूषण बनते थे। शंख तथा सीप से भी विभिन्न प्रकार की चीजें बनायी जाती थीं ।
विज्ञान एवं तकनीक की प्रगति
सिन्धु सभ्यता के निवासियों ने विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की थी। उन्हें रसायन-विद्या, धातु, न औषधि एवं शल्यक्रिया का ज्ञान था। वे ताँबा और टीन को मिलाकर काँसा तैयार करते थे। उन्हें धातु गलाने की कला और रंगों के प्रयोग का ज्ञान था। उन्होंने माप है तौल की एक प्रामाणिक पद्धति का विकास किया था। सम्भवतः उन्हें दशमलव-3 का ज्ञान था । इससे अंकगणित और रेखागणित के विकास का अनुमान लगाया जा सकता है । खगोल और ज्योतिष विद्या के क्षेत्र में भी प्रगति हुई थी सिन्धुघाटी के निवासियों को ग्रहों और नक्षत्रों की गति का ज्ञान था। इससे वे बाढ़ से अपनी रक्षा करते थे और कृषि कार्य का भी सम्पादन करते थे। उन्होंने अनेक रोगों की पहचान कर ली थी। रोगों से छुटकारा पाने के लिए वे औषधि का निर्माण करते थे। मोहनजोदड़ो से शिलाजीत के व्यवहार का प्रमाण मिला है। समुद्र-फेन और हरिण के सिंग के चूर्ण का इस्तेमाल औषधि के रूप में किया जाता था। सिन्धुघाटी के निवासी शल्य-चिकित्सा का भी ज्ञान रखते थे । कालीबंगा और लोथल से खोपड़ी की शल्य चिकित्सा के प्रमाण मिले हैं।
सिन्धु सभ्यता की देन :
लेकिन धर्म पर उनका प्रभाव अत्यधिक है। जल, वृक्ष, मातृदेवी, शिव, लिंग योनि शक्ति की पूजा और उपासना का प्रारम्भ सिन्धु-प्रदेश में हुआ और उसक प्रभाव अब भी भारतीय धार्मिक जीवन पर है। योगाभ्यास, जादू-टोना आदि को हिन्दुओं ने सम्भवतः हड़प्पावालों से ही अपनाया होगा। आज भी पीपल पूजा होती है । नाग तथा नदी की पूजा तो प्रचलित है। पशुओं में साँढ़, गाय और बन्दर की है। कुछ मुहरों पर स्वस्तिक और चक्र के चित्र मिले हैं। ये दोनों सूर्य के प्रतीक है। आज भी हम सूर्य और अग्नि की पूजा करते हैं।
परवर्ती भारतीय कला भी सिन्धु सभ्यता की ऋणी है। भारत में मूर्तिकला का शिलान्यास सर्वप्रथम यहीं हुआ । श्री दीक्षित का मत है कि योगी की मूर्ति भारतीय मूर्तिकला का सर्वप्रथम उदाहरण है । वहाँ लाल पालिश पर काले रंग से जो चित्रण हुआ है वह शैली विश्व के किसी अन्य देश को ज्ञात नहीं थी। सिन्धुघाटी सभ्यता के विनाश के कारण :
सिन्धु सभ्यता के विनाश के निम्नलिखित कारण बतलाये जाते हैं :
(i) कुछ विद्वानों का मत है कि सिन्धु और रावी नदियों की धाराओं में भयानक परिवर्तन के कारण आस-पास का क्षेत्र सुखाग्रस्त हो गया। इस कारण यह सभ्यता नष्ट हो गई।
(ii) भूकम्प या बाद के कारण यह सभ्यता नष्ट हो गई। खुदाई से पता चलता है कि मोहनजोदड़ो कई बार भीषण बाढ़ के प्रकोप का शिकार हुआ था लोथल, चन्द्रदड़ो आदि स्थानों से भी बाढ़ के प्रमाण मिले हैं। अतएव यह अनुमान किया जाता है कि बाढ़ के कारण ही यह सभ्यता नष्ट हो गई ।
(iii) अग्निकाण्ड तथा महामारी भी सिन्धु सभ्यता के अन्त का कारण बतलाया जाता है। उत्तरी बलूचिस्तान के कुछ स्थानों में जली हुई चीजों की मोटी तहें मिली हैं। लगता है कि भीषण अग्निकाण्ड में पूरी आबादी बर्बाद हो गई। यह भी कहा जाता है कि मलेरिया, प्लेग के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो गई थी। लेकिन महामारी का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है।
(iv) विदेशी आक्रमण भी सिन्धु सभ्यता के अन्त का कारण माना जाता है । मोहनजोदड़ो में अस्थिपंजरों के ढेर मिले हैं। इनमें कुछ स्त्रियों और बच्चों के कंकाल है । इससे बर्बर अक्रमण और सामूहिक हत्याकाण्ड का अनुमान लगाया जाता है ।
(v) कुछ विद्वानों ने आर्थिक स्थिरता (Economic Stagnation) को सिन्धु सभ्यता के पतन का कारण माना है। सिन्धु-प्रदेश के निवासियों का व्यापारिक सम्बन्ध मेसोपोटागिया, मिस्र आदि देशों से था। इन देशों की राजनीतिक स्थिति अस्थिर थी। इससे वाणिज्य व्यापार को क्षति पहुँची । व्यापार सिन्धु-प्रदेश के निवासियों के आर्थिक जीवन का आधार था और इसके नष्ट होते ही सभ्यता का आधार ही नष्ट हो गया। अतिरिक्त, जनसंख्या में वृद्धि, प्राकृतिक साधनों की कमी और भूमि की उर्वर भक्ति की कमी ने सिन्धु सभ्यता के आधार को ही कमजोर बना दिया । इस प्रकार सिन्धु सभ्यता के अन्त के कई कारण थे ।
(vi) पर्यावरण में परिवर्तन के चलते यह सभ्यता कमजोर हो गयी। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई तथा नदियों के जल का बढ़ता स्तर बस्तियों के लिए खतरनाक साबित हुआ।