धर्म-सुधार आन्दोलन की पृष्ठभूमि :
छठी शताब्दी ई० पूर्व विश्व के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस समय के विश्व के अनेक देशों में धर्म-सुधार आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। धर्म-सुधारकों ने सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया और अपने आदर्शों से मानव-सभ्यता को अनुप्राणित किया। भारतवर्ष में ब्राह्मणों के आधिपत्य, वर्ण-व्यवस्था तथा बलिदान प्रधान धर्म के विरुद्ध वर्धमान महावीर तथा गौतम बुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। चीन में समाज-सुधार के नाम पर कन्फ्यूशियस और लाओत्से अपने उपदेश जनता को सुना रहे थे। फिलिस्तीन और पश्चिम एशिया में पैगम्बर ईसा यहूदियों को सुपथ पर सारे की चेष्टा कर रहे थे। फारस में जरथुस्त्र के धर्म का प्रचार प्रारम्भ हो चुका था। इन धर्म-सुधार आन्दोलनों का व्यापक प्रभाव हुआ ।
भारत में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण :
(i) धार्मिक जटिलता :
वैदिककाल का धर्म अत्यन्त सरल तथा आडम्बरहीन था, परन्तु कालान्तर में यह अत्यन्त जटिल तथा दुरुह हो गया। ब्राह्मणों की सत्ता सर्वोपरि हो गयी। धर्म में अन्धविश्वास और बाह्याडम्बर बढ़ते जा रहे थे, किन्तु आचरण की शुद्धि और हृदय की पवित्रता पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। देवी-देवताओ पर पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी और हिंसा तथा रक्तपात का नग्न नृत्य होता था।
(ii) वर्ण-व्यवस्था में विषमता :
ब्राह्मणों ने धीरे-धीरे अपना प्रभुत्व और प्रभाव बहुत बढ़ा लिया था धर्म, समाज, राजनीति सभी क्षेत्रों में उनकी तूती बोल रही थी। वैदिक ज्ञान पर वे अपना एकाधिकार समझते थे। इस कारण अन्य तीन वर्णों के लोगों में ब्राह्मणों के विरुद्ध धीरे-धीरे प्रतिक्रया होने लगी। क्षत्रियों, वैश्यों और शुद्रो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का विरोध किया।
(iii) बौद्धिक जागरण :
ब्राह्मणों का कहना था कि विभिन्न अनुष्ठानों तथा संस्कारों
का सम्पादन करके आत्मा को आवागमन से मुक्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त तापस-मार्ग का भी समर्थन हो रहा था कि जंगलों में जाकर तपस्या करके और अपनी इन्द्रियों का दमन करके आत्मा को सांसारिक बन्धनों से मुक्त किया जा सकता है। समाज में एक तीसरा वर्ग ज्ञानमार्गियों का था। उनके विचार में, अज्ञान का विनाश करने और सत्य ज्ञान प्राप्त करने पर ही आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो सकता था। इस प्रकार कर्म मार्ग, तापस-मार्ग और ज्ञान-मार्ग के आन्दोलन इस समय चल रहे थे। लेकिन इन तीनों मार्गों में से किसे चुना जाय, यह निर्णय जनसाधारण के लिए बड़ा कि था। इसी भ्रमात्मक स्थिति में नये प्रचारकों ने अत्यन्त सरल मार्ग की ओर निर्देश किया और साधारण जनता उसी मार्ग पर चल पड़ी।
(iv) उपनिषदों के उपदेश :
धार्मिक आन्दोलन का एक प्रमुख कारण धार्मिक चिन्तन की स्वतंत्रता थी । उपनिषदों में वैदिक धर्म की बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया गया और उन बुराइयों का विरोध किया गया था। इन दार्शनिक ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया कि कर्मकाण्ड व्यर्थ की चीज है, क्योंकि मनुष्य को कर्म का फल अवश्य ही भुगतना पड़ता है। उपनिषदों में यज्ञ करनेवालों और करानेवालों की निन्दा की गयी और उन्हें मूर्ख कहा गया। इनमें मोक्ष का साधन ज्ञान की प्राप्ति बतलाया गया। अहिंसा तथा आचरण की पवित्रता पर जोर दिया गया।
वर्धमान महावीर और जैनधर्म :
वर्धमान महावीर का जीवनवृत्त
: वर्धमान महावीर का जन्म 540 ई० पू० में वैशाली के निकट कुन्दग्राम में हुआ था। अपने समकालीन बुद्ध की तरह वे राजवंश में पैदा हुए थे उनके पिता नामी क्षत्रिय कुल के सरदार थे और माता एक लिच्छवी राजकुमारी आरम्भ में महावीर ने गृहस्थ का जीवन बिताया। लेकिन विवाहोपरान्त लगभग तीस वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास धारण कर लिया। ये बारह वर्ष तक भटकते रहे।" अन्त में, रिजुपालिका नदी के तट पर इन्हें वास्तविक प्रकाश मिला। तृष्णा, मोह आदि शारीरिक विषयों पर विजय प्राप्त करने के कारण ये 'महावीर' (पराक्रमी) तथा जिन (विजेता) कहलाये 'जिन' संज्ञा से ही उनके अनुयायियों का नाम जैन पड़ा। लगभग तीस वर्षों तक महावीर ने अपने धर्म का प्रचार देश के विभिन्न भागों में किया। 72 वर्ष की आयु में (468 ई० पू०) महावीर की मृत्यु हो गयी।
जैन धर्म के सिद्धान्त
जैन धर्म के पाँच मूल सिद्धान्त हैं-हिंसा न करो, झूठ न बोलो, चोरी न करो, सम्पत्ति जमा न करो तथा ब्रह्मचर्य पालन करो। जैन वेदों में विश्वास नहीं करते थे। यज्ञ या अनुष्ठान को वे निरर्थक मानते थे। जैन धर्म में सृष्टिकर्ता ईश्वर की कल्पना को मिथ्या माना जाता है। जीव के आवागमन में उनका विश्वास है, जीवन का उद्देश्य पापों से छुटकारा पाना है। जन्मान्तर के कर्मों से मुक्ति पाने पर होता ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जैन धर्म देवताओं के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। यह वर्ण व्यवस्था को एकदम बुरा नहीं समझता है। महावीर के अनुसार मनुष्य अपने पूर्वजन्म के पाप-पुण्य के अनुसार ही जन्म लेता है। महावीर का विचार था कि शुद्ध जीवन के द्वारा निम्न जातियों के लोग भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। जीव के आवागमन से छुटकारा पाने के लिए जैन धर्म के अनुसार तीन उपाय हैं- सम्यक श्रद्धा सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् आचरण ।
दो सम्प्रदाय :
जैन धर्म में दो सम्प्रदाय हो गए- दिगम्बर और श्वेताम्बर दिगम्बर वे कहलाये जिन्होंने अपने प्रवर्तक महावीर की तरह नग्न रहना पसन्द किया। परन्तु श्वेताम्बर जैन महावीर के उपदेशों के विरुद्ध श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
जैन धर्म के ग्रन्थ :
महावीर के मूल उपदेश 14 जिल्दों में संकलित थे जिन्हें 'पूर्व'' कहा जाता था। ई० पू० चौथी सदी में जैन साधुओं ने एक नयी संकलन तैयार किया जिसे 'बारह अंग' कहा जाता है। बाद में गुजरात में जैन धर्म के उपदेशों का अन्तिम संकलन तैयार हुआ जिसमें अंगों के साथ-साथ उपांग, मूल और सूत्र भी सम्मिलित कर लिये गये।
जैन धर्म का प्रचार :
महावीर ने सारा जीवन अपने धर्म के प्रचार में लगाया तथा स्त्री और पुरुष दोनों को इसमें सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया। मृत्यु के पहले उन्होंने अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति को जैनियों का प्रधान बनाया। इन्द्रभूति ने भी इस प्रचलन को जारी रखा। इससे जैनियों को संगठित होकर काम करने में सहायता मिली।
जैन धर्म का पतन :
लेकिन जैन धर्म का प्रसार भारत में उतनी तेजी से नहीं हुआ जितना बौद्ध धर्म का इसका कारण एक यह हो सकता है कि इसमें ब्राह्मण धर्म से कोई खास अन्तर नहीं था और इसलिए यह जनसाधारण को आकर्षित नहीं कर सका। दूसरे, यह अहिंसा पर अत्यधिक जोर देता था। इस कारण लोगों को यह धर्म बहुत कष्टदायक और कठोर प्रतीत होता था। तीसरे, बौद्ध धर्म की तरह इसको किसी राजा का प्रश्रय नहीं मिला। अन्त में, जैन धर्म के प्रचार के लिए किसी जैन संघ की स्थापना नहीं हुई। इसलिए इस धर्म का सुसंगठित रूप से प्रचार नहीं हो सका।
जैन धर्म की देन
जैन धर्म ने भारतीय संस्कृति को कई अनमोल रत्न दिये। रूढ़िवादी वैदिक धर्म पर सबसे पहले करारी चोट इसी ने की। संस्कृत की जगह अर्द्ध मागधी में अपने साहित्य का निर्माण कर इसने इस भाषा के विकास में काफी योग दिया। इनकी अधिकांश रचनाएँ शौरसेनी में हैं और इसी शौरसेनी से आगे हिन्दी, मराठी आदि भाषाओं का विकास हुआ। जैनियों ने महाकाव्य, उपन्यास, नाटक आदि के विकास में भी सहायता पहुँचायी।
गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म :
गौतम बुद्ध का जीवनवृत्त
बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक गौतम बुद्ध थे। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ का जन्म 563 ई० पू० में हिमालय की तराई में नेपाल की दक्षिणी सीमा पर बसे कपिलवस्तु के शाक्यवंशीय राजा शुद्धोदन के पर हुआ था। इसी कारण गौतम बुद्ध को 'शाक्य मुनि' भी कहा जाता है। उनकी माता का नाम माया देवी था। सिद्धार्थ गौतम गोत्र के थे। इसीलिए उन्हें गौतम भी कहा जाता है।
सिद्धार्थ बचपन से ही चिंतनशील प्रकृति तथा कोमल एवं दयालु चित्त के थे। दूसरों को दुखी देखकर वे स्वयं दुखी हो जाते थे और संसार के दुख, रोग, शोक, भय आदि को दूर करने की चिन्ता में डूबे रहते थे। पुत्र की वैराग्य मनोवृत्ति से पिता को कुछ चिन्ता हुई और पिता ने उनको सांसारिक बन्धनों में डालने के उद्देश्य से उनका विवाह कोलिय वंश की अतीव सुन्दरी यशोधरा नामक राजकुमारी से कर दिया। गौतन को यशोधरा से राहुल नामक एक पुत्ररत्न की भी प्राप्ति हुई। परन्तु, पुत्ररत्न की प्राप्ति से उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। बारह वर्षों तक गार्हस्थ जीवन बिताने के बाद एक दिन आधी रात को प्यारी पत्नी और नवजात शिशु को छोड़कर 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ सांसारिक मायाजाल को तोड़कर मुक्ति-मार्ग की खोज में निकल पड़े। बौद्ध लोग इस घटना को 'महाभिनिष्क्रमण' कहते हैं।
गृहत्याग कर गौतम ज्ञान-प्राप्ति के लिए राजगृह गये तथा वहाँ अलार और उड़क नामक ब्राह्मणों से शास्त्र की शिक्षा ली। परन्तु, इससे उन्हें शान्ति नहीं मिल सकी।
इसके बाद गया जाकर निर्जना नदी तट पर वे 6 वर्षों तक घोर तपस्या करते रहे। शरीर सूखकर अस्थिपंजर मात्र रह गया, फिर भी, उन्हें शान्ति नहीं मिली। नामक एक वैश्य-कन्या ने उन्हें वन देवता समझकर खीर खाने को दिया, तब उन्होंने अपना उपवास तोड़ा। लोग तपोभ्रष्ट संन्यासी समझकर उनका तिरस्कार करने ही अन्त में, एक दिन एक पीपल के वृक्ष के नीचे जब वे ध्यानमग्न थे, उन्हें अकस्मात् जय का साक्षात्कार हुआ, अर्थात् उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। वह वृक्ष, जिसके ये उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, बोधिवृक्ष के नाम से अमर हो गया और वह स्थान 'बोध गया कहलाने लगा। 'बोध गया' आज भी बौद्ध धर्मावलम्बियों का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान है। उस समय से गौतम 'बुद्ध' या 'तथागत' कहलाने लगे।
बुद्ध के प्रचार कार्य
ज्ञान-प्राप्ति के बाद बुद्ध काशी की ओर चल पड़े। सारनाथ में उनका प्रथम प्रवचन हुआ जिसे सुनकर बहुत-से लोग उनके अनुयायी बन गये । सारनाथ का यह उपदेश 'धम्मचक्क पवत्तन सुत्त' कहलाता है। 45 वर्षों तक वे मगध, कोशल, शाक्य और लिच्छवी राज्य में धूम-घूमकर उपदेश देते रहे। उनके उपदेशों से प्रभावित हो राजा, रंक, साधु, ब्राह्मण, दुराचारी सभी उनके धर्म में दीक्षित होने लगे। 80 वर्ष की आयु में गोरखपुर जिले के कुशीनगर में उनका देहान्त हो गया। इसे बौद्ध साहित्य में 'महापरिनिर्वाण' कहा गया है। उनके शिष्यों ने कुशीनगर में उनकी स्मृति में एक स्तूप बनवाया।
बौद्ध धर्म की शिक्षा एवं सिद्धान्त
महात्मा बुद्ध ने सरल और व्यावहारिक उपदेश दिये जिन्हें हम बौद्ध धर्म के सिद्धान्त के नाम से अभिहित करते हैं। उन्होंने अपने शिष्यों को सांसारिक दुख, उसके कारण उसके अन्त तथा अन्त करने के उपाय आदि के मर्म को समझाया और बताया कि बिना मोक्ष की प्राप्ति से दुःखों का अन्त नहीं हो सकता। मोक्ष की प्राप्ति के लिए उन्होंने मध्यम मार्ग पर जोर दिया। इसके अनुसार न तो शरीर को अधिक कष्ट देना ही अच्छा है और न भोग-विलास में लिप्त रहना ही। अपने नैतिक उपदेशों में उन्होंने 'चार आर्य सत्य' बताये जो इस प्रकार हैं
(i) दुःख
उन्होंने कहा कि संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख हैं।
(ii) दुख समुदाय (दुख का कारण)
दुःख के कारण हैं तृष्णा । तृष्णा अहंकार, ममता, राग-द्वेष, कलह आदि को जन्म देती है।
(iii) दुख निरोध
तृष्णा के नाश से ही जन्म-मरण और उसके साथ लगे हुए दुःख का अन्त होता है। सम्पूर्ण तृष्णा के क्षय का नाम ही निर्वाण है।
(iv) दुखनिरोधगामिनी प्रतिपदा :
इस दुःख के निरोध के लिए उन्होंने 'अष्टांगिक संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्ति, सम्यक् समाधि, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम मार्ग" का आविष्कार किया। अर्थात् इस मार्ग के 8 अंग हैं- सम्यक् दृष्टि, सम्यक् और सम्यक् स्मृति इसी को 'मध्यम मार्ग भी कहा जाता है।
शील और चरित्र सम्बन्धी उपदेश :
महात्मा बुद्ध ने व्यावहारिकता पर अधिक जोर दिया और इसके लिए दस शील का भी उपदेश दिया- (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) अपरिग्रह, (5) ब्रह्मचर्य, (6) नृत्य-गान का त्याग, (7) पुष्प तथा अन्य सुगन्धित वस्तुओं का त्याग, (8) असमय में भोजन का त्याग, (9) कोमल शय्या का त्याग और (10) कामिनी-कांचन का त्याग। इनमें प्रथम पाँच सभी के लिए आवश्यक है और अन्तिम पाँच केवल बौद्ध भिक्षुओं के लिए। उन्होंने वेद को भी स्वीकार नहीं किया और बुद्धि को ही ज्ञान का अन्तिम साधन बताया। उन्होंने ईश्वर की सत्ता भी स्वीकार नहीं की, लेकिन, पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धान्तों को स्वीकार किया। उन्होंने यज्ञ, अनुष्ठान, धार्मिक आडम्बर आदि का विरोध किया और ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, जाति-पाँति आदि की भावना की निन्दा की। धर्म-प्रचार के लिए उन्होंने संघ की स्थापना की और संगठन का रूप प्रजातांत्रिक रखा। बौद्ध भिक्षु या संन्यासी किसी भी जाति के लोग हो सकते थे।
बौद्ध धर्म का प्रचार एवं सफलता के कारण :
बौद्ध धर्म के व्यापक प्रसार के निम्नलिखित कारण थे
(i) बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सरल, नैतिक तथा व्यावहारिक थे। ये उपदेश सरल जन- भाषा में दिये गये थे जिन्हें सर्वसाधारण जनता भी सहज ही समझ सकती थी।
(ii) बौद्ध धर्म में वर्ण, जाति, ऊँच-नीच आदि का भेद-भाव स्वीकार गया था। शुद्ध आचरण करनेवाला कोई भी व्यक्ति बौद्ध धर्म को स्वीकार कर सकता था।
(iii) बुद्ध के निष्कलंक, पवित्र तथा उज्ज्वल चरित्र, उनके गौरवपूर्ण तथा चमत्कारपूर्ण मुखमंडल एवं दया और करुणा से भरी वाणी ने लोगों पर जादू का असर किया। स्वयं महात्मा बुद्ध ने राजाओं और ब्राह्मणों से लेकर वैश्य तक का आतिथ्य स्वीकार किया था ।
(iv) महात्मा बुद्ध ने धर्म प्रचार के लिए संघ की स्थापना की। संघ का संगठन लोकतांत्रिक सिद्धान्तों पर आधारित था उसमें जाति-पाँति, ऊँच-नीच का प्रपंच नहीं था। सभी इस संघ में प्रवेश पा सकते थे।
(v) बौद्ध संघ के भिक्षुओं ने आरम्भ में बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ा ही प्रशंसनीय काम किया। उनके जीवन की पवित्रता और सरलता तथा संघ के संगठन की प्रजातांत्रिकता का प्रभाव सर्वसाधारण पर पड़ा।
(vi) महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म को मध्यममार्गी बनाया था जिसमें न तो कठोर तपस्या करने की सीख थी, न यज्ञ-अनुष्ठान का आयोजन था, न विलासप्रियता में डूबने की शिक्षा और न जाति पाँति तथा ऊँच-नीच का प्रपंच था। सर्वसाधारण की भाषा में बताये गये इस धर्म का जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
(vii) बुद्ध के समकालीन राजाओं ने जैसे बिम्बिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित, उदयन, शुद्धोदन आदि ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। फलतः उनकी प्रजा ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बाद के अनेक शासकों ने जैसे अशोक, कनिष्क आदि ने बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाकर इसके प्रचार के लिए देश-विदेश में बौद्ध भिक्षु भेजे। फलतः कनिष्क के युग तक बौद्ध धर्म एशिया और चीन तक फैल गया।
(viii) बौद्ध धर्म के प्रचार में बौद्ध-सभाओं का महत्त्वपूर्ण योग था। ऐसी चार सभाएँ हुई जिनमें बुद्ध के उपदेशों का समय-समय पर संग्रह, शुद्धि तथा समयानुसार संशोधन भी हुआ। फलतः यह धर्म नया रूप, नया जीवन और नया उत्साह पाकर बढ़ता गया प्रथम सभा राजगृह में हुई जिसमें बुद्ध के उपदेशों का संकलन किया गया और उन्हें उपदेश, साधन तथा सिद्धान्त के तीन भागों में 'त्रिपिटक' नाम से रखा गया। दूसरी सभा प्रायः सौ वर्षों बाद वैशाली में हुई जिसमें इन ग्रन्थों में सुधार हुए। तीसरी सभा अशोक ने पाटलिपुत्र में बुलायी जिसमें बौद्ध साहित्य का अन्तिम संकलन किया गया। चौथी सभा कनिष्क के शासनकाल में हुई जिसमें प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों के भाष्य लिखे गये।
बौद्ध धर्म के हास के कारण :
बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे
(i) बौद्ध धर्म के विरुद्ध ब्राह्मण निरन्तर विद्रोह करते रहे। बौद्ध धर्म ने वैदिक धर्म का नाश नहीं किया था। निस्सन्देह अशोक, कनिष्क तथा हर्ष के शासनकाल में वैदिक धर्म का दीप मन्द पड़ गया था, परन्तु समय आने पर यह धर्म पुनः शक्तिशाली हो गया। पुष्यमित्र, गुप्त सम्राटों तथा राजपूत राजाओं ने वैदिक धर्म के प्रसार में काफी सहायता भी की।
(ii) आरम्भ में बौद्ध भिक्षु बड़े कर्मठ थे, परन्तु बाद में वे आरामतलब हो गये। वे विलासी, भोगी और संसारी बन गये थे। आरम्भ में बौद्ध धर्म एक सम्प्रदाय था, परन्तु कनिष्क के समय में यह दो सम्प्रदायों-हीनयान और महायान में बँट गया। बौद्ध भिक्षुओं के इन नैतिक पतनों का ब्राह्मणों ने खूब लाभ उठाया। उन्होंने जनता का ध्यान बौद्ध धर्म की बुराइयों और वैदिक या हिन्दू धर्म की अच्छाइयों की ओर आकृष्ट किया शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट जैसे उद्भट्ट विद्वानों ने बौद्ध धर्म की धज्जीधज्जी उड़ा दी।
(iii) हूणों के आक्रमण ने, खासकर मिहिरकुल ने, बौद्धों की कमर तोड़ दी।
(iv) आगे चलकर मुसलमानों ने इस धर्म की रही-सही शक्ति का सफाई कर दिया।
(v) भारत में बौद्ध धर्म के विनाश का प्रमुख कारण यह था कि जब हिन्दू धर्म में सुधार हुए तो बौद्ध धर्म विशाल हिन्दू धर्म के पेट में समा गया। हिन्दुओं ने अन्य देवताओं की तरह गौतम बुद्ध की पूजा भी आरम्भ कर दी और उन्हें भी भगवान का एक अवतार मान लिया।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म में तुलना
समानता :
बौद्ध तथा जैन दोनों धर्मों में कई दृष्टियों से समानता है। प्रथम, दोनों धर्म वैदिक कर्मकाण्ड के विरूद्ध थे तथा दोनों सुधारक सम्प्रदाय थे। दोनों ने अहिंसा और जीवन की पवित्रता की शिक्षा दी। दूसरे, दोनों धर्मों ने वेद को अस्वीकार किया, यज्ञ और पशु बलि का विरोध किया तथा ईश्वर के सम्बन्ध में चुप रहे। तीसरे, दोनों ने अहिंसा और सदाचार पर जोर दिया तथा पुनर्जन्म, कर्म, मोक्ष या निर्वाण के सिद्धान्तों को स्वीकार किया। दोनों ने त्रिरत्न की शरण ली। जैन धर्म के त्रिरत्न थे-सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र तथा बौद्ध धर्म के त्रिरत्न थे-बुद्ध, संघ और धर्म । लोक भाषा अपनायी । अन्त में, दोनों धर्मों से कला-कौशल, मठ, स्तूप आदि के निर्माण चौथे, दोनों धर्म के प्रवर्त्तक क्षत्रिय राजवंश के थे और दोनों ने संस्कृत का दामन छोड़कर में उन्नति हुई, अस्पताल, पशु-चिकित्सालय खुले तथा प्रेम, अहिंसा एवं विश्व बन्धुत्व की भावना का प्रसार हुआ। दोनों धर्मो में बड़े-बड़े पण्डित तथा विद्वान हुए जिनके (कारण पालि, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषा की प्रगति हुई।
विभेद
परन्तु इन समानताओं के रहते हुए भी कई बातों में दोनों धर्म मिल थे। प्रथम, जैन धर्म के लिए त्याग और आत्म-उत्पीड़न आवश्यक हैं, इसके विपरीत बौद्ध धर्म ने निर्वाण की प्राप्ति के लिए मध्यममार्ग का अवलम्बन किया। दूसरे, जैन धर्म ने सृष्टि के मूल में किसी दिव्य शक्ति का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया, परन्तु बौद्ध धर्म ने दिव्यशक्ति की सत्ता स्वीकार की। तीसरे, जैन धर्म में अहिंसा पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया गया। लेकिन बौद्ध धर्म में अहिंसा को व्यापक रूप नहीं दिया गया था, बल्कि उसमें अहिंसा का पालन सम्भव था। चौथे, जैन धर्म के हु नियम बौद्ध धर्म से कहीं अधिक कठोर और अव्यावहारिक थे। जैन साधु नंगे रहते उस थे और बौद्ध भिक्षु वस्त्र पहनते थे। अन्त में, बौद्ध धर्म की मूल पुस्तकें पालि भाषा दिन में हैं और जैन धर्म की अधिकांश पुस्तकें प्राकृत और संस्कृत में हैं।
जैन और बौद्ध धर्मों की देन :
जैन और बौद्ध धर्म का उदय भारत में धर्म-सुधार तथा महान सामाजिक क्रान्ति की लहर के रूप में हुआ। अतः इनका व्यापक प्रभाव भारत की सभ्यता-संस्कृति तथा सामाजिक गठन पर पड़ा। नीचे दो-तीन प्रमुखतम बातों का उल्लेख किया जा रहा है।
1. मूर्तिपूजा
बोधिसत्व की मूर्तियों तथा उनके लिए बड़े-बड़े मन्दिर सामान्य जनता को अत्यधिक आकृष्ट करते होंगे। इनकी देखा-देखी तथा बौद्ध धर्म से विमुख करने के भी उद्देश्य से हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाकर उन्हें मन्दिरों में प्रतिष्ठित किया जाने लगा। यज्ञ के लिए भी मन्दिरों का निर्माण होने लगा। इस प्रकार मूर्ति
पूजा हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग बन गयी।
2. लोक भाषा में साहित्य का विकास :
तत्कालीन लोकभाषा पालि में अपने सन्देश देकर गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों ने साहित्य निर्माण के लिए नवीन मार्ग खोल दिया । सम्पूर्ण साहित्य पालि भाषा में प्रणीत है ।
3. भारतीय इतिहास पर प्रभाव
अहिंसा पर अतिशय जोर देकर बौद्ध धर्म ने ही राष्ट्रीय प्रकृति को शान्तिप्रिय बनाने में योग दिया है। मौर्य साम्राज्य के असामयिक विघटन का प्रमुख कारण तो यह था ही। बाद में भी इसका प्रभाव राष्ट्रीय प्रकृति से एकदम खत्म नहीं हो गया।
4. तर्कवाद को प्रश्रय
बुद्ध ने धर्म के क्षेत्र में स्वतंत्र चिन्तन और तर्क-बुद्धि को प्रश्रय दिया। इससे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में स्वतंत्र चिन्तन को प्रोत्साहन मिला।
5. पड़ोसी देशों के साथ सम्पर्क
बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए मण्डलियाँ चीन, : वर्मा, सिंहल आदि देशों में बराबर जाती थीं विदेशों से भी छात्र एवं जिज्ञासु भारत 1 आते थे। फलस्वरूप पड़ोसी देशों के साथ भारत का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुआ।।
चीन में धर्म-सुधार आन्दोलन
चाऊवंश के शासनकाल के अन्तिम दिनों में चीन का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था। चारो तरफ अराजकता छायी हुई थी। सामन्तों ने केन्द्रीय सरकार को दुर्बल बना दिया था और वे स्वतंत्र हो गये थे। सारा देश अनेक स्वतंत्र राज्यों में विभक्त हो गया था। धर्म के नाम पर अन्धविश्वास का पालन होता था। लोग सांसारिक सुख भोगबीमें लीन थे। आर्थिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो गया था। ऐसी अराजक परिस्थिति के प्रति विचारकों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। वे आदर्श परिस्थिति की खोज करने लगे। इस युग के विचारकों में कन्फ्यूशियस और लाओत्से के नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
कन्फ्यूशियस की जीवनी
कन्फ्यूशियस का जन्म और पालन-पोषण समृद्धिमय वातावरण में हुआ था। उसका जन्म आधुनिक शानतुंग प्रान्त में 550 ई० पू० में हुआ था। बाल्यकाल में उसकी प्रतिभा बड़ी विलक्षण थी और सदाचार तथा सद्व्यवहार उसकी नस-नस में भरे पड़े थे। 19 वर्ष की अवस्था में उसकी शादी हो गयी। कुछ दिनों के बाद उसने एक शिक्षक का जीवन प्रारम्भ किया। इसके बाद कन्फ्यूशियस सरकारी नौकरी में चला गया। वह चुंगतू नामक शहर का प्रधान मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया। वहाँ वह अपने सिद्धान्तों के अनुसार शासन चलाने लगा। अपराधों का दमन करने में उसको काफी सफलता मिली। बाद में कन्फ्यूशियस ने इस्तीफा दे दिया। इस समय उसकी उम्र 53 वर्ष की हो गयी थी। उसके बाद चौदह वर्षों तक एक ऐसे शासक की खोज में लगा रहा जो उसको अपना गुरु मानता और उसके सिद्धान्तों के अनुरूप शासन चलाता परन्तु कन्फ्यूशियस को इस बात से बहुत दुःख हुआ कि किसी भी शासक ने उसको गुरु नहीं बनाया। तब निराश होकर उसने अपने जीवन के अन्तिम पाँच-छह साल चीनी साहित्य के अध्ययन में लगाये। 499 ई० पू० में उसका देहान्त हो गया।
कन्फ्यूशियस के उपदेश कन्फ्यूशियस कोई धर्म-प्रवर्तक नहीं था। यह केवल समाज-सुधारक था। वह समाज में प्रचलित कुरीतियों को दूर करना चाहता था। वह आचार-व्यवहार पर अधिक जोर देता था। उसके उपदेश थे अपने पूर्वजों की पूजा करो, गुरुजनों को शान्ति और विश्राम दो तथा अपने मित्र के प्रति सच्चे और ईमानदार बनो। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन करे। समाज की भलाई इसी में है। वह वैयक्तिक जीवन में संयम, निष्ठा आदि पर विशेष ध्यान देता था। अनुशासन, ईमानदारी, शुद्ध आचरण उसके उपदेश के मूल मंत्र थे। कन्फ्यूशियस राजतंत्र का समर्थक था। वह सर्वसाधारण को शासन-कार्य के लिए अयोग्य समझता था। उसका कहना था कि शासन कुलीनों के हाथों में रहना चाहिए। किन्तु, राजा का परोपकारी होना और जनहित के कार्यों में लगा रहना आवश्यक है। उसे उद्योग-धन्धों की समुचित | व्यवस्था करनी चाहिए। उसने सरकारी कर्मचारियों के लिए ये नियम निश्चित किये = (1) अपना चरित्र अच्छा रखो, (2) योग्य व्यक्तियों का आदर करो, (3) सभी के प्रति दया रखो, (4) राजमंत्रियों का आदर करो, (5) जनकल्याण के कामों में सहयोग दो, -1 (6) विदेशियों के साथ अच्छा व्यवहार करो, (7) साधारण जनता के साथ अच्छा व्यवहार करो, (8) अच्छी बातों को प्रोत्साहन दो और (9) राजा और राज्य की भलाई पर ध्यान रखो। कन्फ्यूशियस का प्रभाव चीन के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन पर कन्फ्यूशियस के उपदेशों का बहुत प्रभाव पड़ा। तत्कालीन अराजक अवस्था में उसके उपदेश हितकर साबित हुए। बहुत-से लोग उसके शिष्य बन गये। उसके दर्शन अध्ययन के लिए जगह-जगह स्कूल खुले। उसकी शिक्षाएँ सरकारी पदाधिकारियों के लिए मार्ग-दर्शन का कार्य करती रहीं।
जलें उसके विचारों के अच्छे परिणाम हुए, वहाँ कुछ बुरे परिणाम भी हुए। उसको शिक्षाओं ने चीनवासियों को परम्पराप्रेमी, रूढ़िवादी और सुधार-विरोधी बना दिया। कन्फ्यूशियस के द्वारा निर्धारित नियमों का अक्षरशः पालन करने की भावना के कारण उसकी नैसर्गिक प्रच्छन्न शक्तियों का विकास रूक गया और चीन वाले लकीर के फकीर बन करें रह गये ।
लाओत्से :
इसी समय चीन में एक दूसरा विचारक लाओत्से पैदा हुआ जिसका प्रभाव भी चीनियों पर खूब पड़ा। उसके उपदेश का मूल था "प्राकृतिक अवस्था की ओर लौटये ।" वह सभ्यता की कृत्रिमताओं से दूर हटकर सुख की प्राप्ति का समर्थक था । उसकी अन्य प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित थीं
1. मनुष्य को अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर तथा आवेश में आकर अपने सुन्दर जीवन की महत्ता का अन्त नहीं करना चाहिए ।
2. आन्तरिक शान्ति महान वस्तु है। मनुष्य को उसकी रक्षा करनी चाहिए।
3. मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सदाचारी बनाये तथा उस अवस्था की ओर लौट चले जब धरती पर कोई राजा न था ।
लाओत्से के इन उपदेशों ने एक धर्म का रूप ग्रहण कर लिया जिसको ताओवाद कहते हैं। यह एक रहस्यवादी विचारधारा थी और इसने अकर्मण्यता और भाग्यवाद को प्रश्रय दिया। उसके उपदेशों का अर्थ था कि संसार में काम करने की कोई आवश्यकता नहीं है और इस संसार का क्रम अपने-आप चलता रहता है ।
फारस में या पारसी धर्म-सुधार आन्दोलन :
ई० पू० छठी शताब्दी में धर्म-सुधार का जो आन्दोलन चला था उसका एक केन्द्र फारस भी था। फारस में सामाजिक रीति-रिवाज और धार्मिक अवस्था कुछ वैसी ही हो गयी थी जैसी भारत में। उसमें सुधार लाने का जो आन्दोलन चला उसके नेता थे।
जरथुस्त्र
जरथुस्त्र का जीवनवृत्त
अनुमान लगाया गया है कि जरथुस्त्र का जन्म ई० पू० सप्तम शताब्दी में उत्तर-पशिम ईरान में कहीं हुआ था। जरथुस्त्र बाल्यावस्था से ही बहुत गम्भीर और चिन्तनशील थे। युवावस्था में वे आध्यत्मिक चिन्तन किया करते थे। कठोर साधना के बाद उन्हें धर्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हुआ। अब जगह-जगह घूमकर अपने उपदेश देने लगे जरथुस्त्र ने पुरानी प्रकृति-पूजा और कर्मकाण्ड का विरोध किया। उन्होंने एकेश्वरवाद और नीति-धर्म का प्रचार किया
जरथुस्त्र के धार्मिक सिद्धान्त जरथुस्त्र के उपदेशों का संग्रह अवेस्ता नामक ग्रन्थ में हुआ है। इसके अनुसार संसार पर आधिपत्य प्राप्त करने के लिए सत्य और असत्य में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष अहुरमज्द नामक देवता और अहिरमन नामक शैतान के बीच होता है। जरथुस्त्र के अनुसार अहुरमज्द ही संसार का निर्माता और ज्ञान का स्वामी है। उनके अनुसार, अहुरमज्द के ये सात गुण थे-ज्योति, सुन्दर ज्ञान, सत्य, आधिपत्य, पवित्रता, क्षेम और कल्याण। वह अच्छाई का प्रतिनिधित्व करता हैहै और उसके विरुद्ध अहिरमन नामक शैतान बुराई का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इन दोनों शक्तियों के बीच सतत् संघर्ष चलता है, और इन्हीं दो शक्तियों के बीच मनुष्य को अपना रास्ता चुनना पड़ता है। अहुरमज्द सर्वशक्तिमान है। अग्नि उसका प्रतीक है और इसलिए अग्नि की पूजा आवश्यक है। जो लोग ऐसा करेंगे उन्हें मृत्यु अच्छा परिणाम मिलेगा। आचार के क्षेत्र में जरथुस्त्र ने निःस्वार्थ सेवा, परोपकार, दया, उदारता और स्नेह आदि मानवीय गुणों पर जोर दिया । उन्होने उपदेश दिया कि के बाद आपत्तिग्रस्त प्राणी की सहायता करने से अधिक पुण्य कार्य कोई नहीं हो सकता परस्पर सहानुभूति की भावना मानवता के विकास के लिए सबसे महान साधन है। उन्होंने निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया ।
जरथुस्त्र ने कृषि को प्रोत्साहन दिया । उनका कहना था 'जो अनाज की खेती करता है, वह पुण्य की खेती करता है।' उन्होंने किसानों को अहुरमज्द का सिपाही बताया, जो अहिरमन के विरुद्ध संघर्ष में योग देता है। उन्होंने किसानों को लूटने की मनाही की । किसानों की संख्या बढ़ाने के लिए उन्होंने विवाह तथा संतोनोत्पत्ति को प्रोत्साहित किया चूँकि, कुत्ता किसानों की सहायता करता है, इसलिए कुत्ते को वि माना गया और उसको मारना अपराध बताया गया। मुर्गे की प्रशंसा की गयी; क्योंकि वह बाँग देकर सुबह में लोगों को उठाया करता है।