फ्रांसीसी क्रांति के कारण एवम परिणाम
1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति से मानव जाति के इतिहास में एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। इसने सामन्तवाद का पूर्ण अन्त करके व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक समानता एवं स्वतंत्रता को स्थापित करने का मार्ग सुगम कर दिया।
क्रान्ति के कारण :
1. राजनीतिक कारण :
(1) राजतंत्र की निरंकुशता :
फ्रांस का राज्य यूरोप में अपने निरंकुश राजतंत्र के लिए प्रसिद्ध था । इस व्यवस्था का सबसे बड़ा पोषक लुई चौदहवाँ था। इसके प्रयासों के फलस्वरूप फ्रांस के राजा के हाथ में असीम अधिकार आ गये थे। राजा की निरंकुशता की कोई सीमा नहीं थी। राज्य की समस्त शक्ति उसी के हाथ में थी। उसकी इच्छा ही कानून थी। लुई चौदहवें के उत्तराधिकारी न तो योग्य थे और न शक्तिशाली। नतीजा यह हुआ कि शक्ति के अत्यधिक संकेन्द्रण को वे सम्भाल न सके। प्रशासन को सुचारु रूप से चलाना उनकी क्षमता के बाहर की बात थी। अतः प्रशासन का यन्त्र एकदम अस्त-व्यस्त हो गया और क्रान्ति के पूर्व सम्पूर्ण फ्रांस में अराजकता छा गयी!(ii) प्रशासनिक अराजकता
इस प्रशासनिक अराजकता के कुछ और कारण थे। राज्य के सभी उच्च पदों को नीलामी द्वारा कुलीनों, पादरियों तथा राजा के कृपापात्रों को दे दिया जाता था। पदाधिकारियों के अधिकारों तथा शक्ति की कोई उचित व्यवस्था नहीं थी। यही हाल कानूनों का था। विभिन्न प्रकार के कानून प्रचलित थे। इससे किसी को पता भी नहीं रहता था कि किस कानून को माना जाय और किसको नहीं। कानून की अनिश्चितता के कारण सरकारी पदाधिकारी जनता पर घोर जुल्म करते थे।(iii) शासन सत्ता का केन्द्रीकरण :
फ्रांस के शासन की सबसे बड़ी बुराई केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति थी। प्रशासन से सम्बन्धित सभी बातों का संचालन राजमहल से होता था । मामूली बात का निर्णय भी वर्साय से ही होता था। देश में कहीं किसी प्रकार के स्थानीय स्वशासन की संस्था नहीं थी। फ्रांस में चर्च की मरम्मत के लिए केन्द्रीय सरकार को आवेदन-पत्र देना पड़ता था ।(iv) राजमहल का विलासी जीवन :
फ्रांस के शासक का जीवन केवल विलासिता में बीतता था। लुई चौदहवें के बाद फ्रांस के राजे प्रशासन के कार्य में कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे। भोग-विलास और आमोद-प्रमोद उनके जीवन के लक्ष्य ये राजा बड़ी शान-शौकत के साथ वर्साय के राजमहल में रहता था। यूरोप भर में वर्साय का राजप्रासाद अपने वैभव और शान-शौकत के लिए प्रसिद्ध था। राजप्रासाद में लुई सोलहवें की सेवा में सोलह हजार तथा उसकी रानी एन्त्यायेनेत की चाकरी में पाँच सौ दास दासियाँ नियुक्त थीं। यहाँ अपव्यय बहुत ही बढ़ा-चढ़ा था। एक तरफ फ्रांस की जनता भूखों मर रही थी जबकि दूसरी तरफ राज्य की समस्त आय राजा-रानी तथा दरबारियों के आमोद-प्रमोद और भोग-विलास में व्यय होती थी।(v) स्वतंत्रताओं का अभाव
क्रान्ति के पूर्व फ्रांस के लोगों को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी। भाषण, लेखन तथा प्रकाशन पर जबर्दस्त प्रतिबन्ध लगा हुआ था। राजनीतिक स्वतंत्रता तो थी ही नहीं फ्रांस में धार्मिक स्वतंत्रता का भी पूर्ण अभाव था। प्रोटेस्टेण्ट धर्म माननेवालों को कठोर से कठोर दण्ड दिया जाता था। किसी प्रकार के बन्दी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम की व्यवस्था न थी। "क्षेत्र द काशे" के प्रयोग से लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ गयी थी।
2. सामाजिक कारण :
फ्रांस की क्रान्ति मुख्यतः सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति थी। उस समय फ्रांसीसी समाज प्रधानतः दो वर्गों में बँटा हुआ था। पहला वर्ग विशेषाधिकार सम्पन्न सामन्तों, कुलीनों तथा उच्च पादरियों का था और दूसरा वर्ग कृषकों, मजदूरों, कारीगरों, व्यापारियों, दूकानदारों तथा मध्यमवर्ग के लोगों का था। इन्हें हर तरह की सुविधाओं से वंचित रखा गया था।
पादरी वर्ग
फ्रांस में चर्च राज्य के अन्दर राज्य के समान था। इसका अपना संगठन था, अपने न्यायालय थे और धन प्राप्ति के अपने स्रोत थे। इसे कर से छुटकारा तो था ही, इसे लोगों पर विशेष कर लगाने तक का अधिकार था। देश की भूमि का पांचवां भाग चर्च के हाथों में था। चर्च की अपार सम्पत्ति से बड़े-बड़े पादरी भोग-विलास का जीवन बिताते थे। धर्म के कार्यों से इन्हें कोई मतलब नहीं रह गया था। इस कारण बड़े-बड़े पादरियों के प्रति जनसाधारण की श्रद्धा बिल्कुल नहीं रह गयी थी। बड़े पादरी ही चर्च की सम्पत्ति का वास्तविक उपभोग करते थे, जबकि छोटे पादरी सभी सुविधाओं से वंचित थे। इसी कारण छोटे पादरी चाहते थे कि कोई ऐसी उथल-पुथल हो जिससे चर्च की स्थिति में सुधार हो। इसी कारण क्रान्ति को छोटे-छोटे पादरियों का पूरा सहयोग मिला।कुलीन वर्ग
उच्च पादरियों की तरह ही कुलीन वर्ग भी सुविधायुक्त एवं सम्पन्न वर्ग था। कुलीनों की संख्या प्रायः एक लाख चालीस हजार थी। इन्हें अनेकानेक सामन्ती विशेषाधिकार प्राप्त थे। ये राजकीय कर से बिल्कुल मुक्त थे। राज्य, चर्च और सेना के समस्त उच्च पदों पर कुलीन लोगों की ही नियुक्ति होती थी। वे सालों भर वर्षाय के राजमहल में जमे रहते थे और राजा को अपने प्रभाव में बनाये रखने के प्रयत्न में लगे रहते थे। राजा इनके प्रभावों से अपने को मुक्त नहीं कर सकता था।सर्वसाधारण वर्ग :
इस वर्ग में किसान, मजदूर, शिल्पी, कारीगर और मध्यम वर्ग के लोग थे। इनमें कृषकों और मजदूरों की स्थिति दयनीय थी। उन्हें राज्य, चर्च तथा जमीन्दारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे और इसके अतिरिक्त अपने सामन्तों की अनेक सेवाएँ करनी पड़ती थीं। कृषकों को सप्ताह में छह दिनों तक जागीरदारों की भूमि जोतने-बोने का कार्य करना पड़ता था। शिकार खेलने के लिए कुशीनों ने अपने क्षेत्र में विस्तृत भू-भाग सुरक्षित छोड़ रखे थे। इन शिकारगाहों के जंगली जानवर तथा कुलीनों के पालतू पशु कृषकों की खेती उजाड़ते थे परन्तु किसान इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठा सकते थे। कुलीनों ने अपनी जागीर में आटे की चक्कियों, शराब की भट्ठियाँ तथा तंदूर आदि खोल रखे थे। किसानों को अपना अनाज जमीन्दार की चक्की में पिसाना पड़ता था। इसके अतिरिक्त, कृषकों को उन्हें भेंट, नजराने आदि के रूप में हर वक्त कुछ-न-कुछ देना पड़ता था। सार्वजनिक कार्य, जैसे- सड़क आदि बनाने के लिए किसानों को मुफ्त काम करना पड़ता था। बँधुआ किसानों को जमीन्दारों की खेती पर बेगारी करनी पड़ती थी। इस प्रकार किसानों की हालत एकदम दयनीय हो चली थी।मध्यम वर्ग
व्यापारी, वकील, लेखक, पत्रकार, कलाकार, शिक्षक, डॉक्टर, निम्नपदस्थ सरकारी कर्मचारी आदि इस वर्ग में थे। छोटी-छोटी सरकारी नौकरियाँ, बैंक और देश का व्यापारिक एवं आर्थिक जीवन इन्हीं लोगों के हाथों में था। अतः फ्रांस के धन, व्यापार और मस्तिष्क पर इन्हीं का अधिकार था। परन्तु यह वर्ग अपनी स्थिति से असन्तुष्ट था। इसके कई कारण थे। सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत इस वर्ग के लोगों के वाणिज्य व्यापार को उन्मुक्त होकर पनपने का मौका नहीं मिलता था। राजा और कुलीनों की तरफ से इनके व्यापार पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाये जाते थे तथा इन्हें जगह-जगह चुंगी देनी पड़ती थी। तत्कालीन शासन के प्रति सबसे अधिक असन्तोष इसी वर्ग में था, अतः आरम्भ में क्रान्ति का संचालन इसी वर्ग ने किया।3. आर्थिक कारण :
विदेशी युद्ध और राजमहल के अपव्यय के कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति एकदम डवाँडोल हो गयी थी। प्रतिवर्ष आय से अधिक व्यय होता था। करव्यवस्था भी असन्तोषजनक थी। यदि सब पर समान रूप से कर लगाया जाता, तो राज्य की आमदनी बढ़ सकती थी लेकिन कर का सारा बोझ कृषक वर्ग पर ही था।
कर की असन्तोषजनक व्यवस्था के साथ-साथ शासकों की फिजूलखर्ची से फ्रांस की हालत और भी खराब हो गयी थी। वर्साय की शान-शौकत बनाये रखने के लिए प्रतिवर्ष बारह करोड़ रुपये खर्च किये जाते थे। फ्रांस का खजाना खाली होने लगा और राज्य दिवालिया हो गया। अब सरकार कर्ज लेने लगी। क्रान्ति के अवसर पर फ्रांस पर साठ करोड़ डॉलर का ऋण था जिसपर उसे ब्याज देना पड़ रहा था। क्रान्ति के पूर्व देश की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गयी थी कि अन्ततः इसी कारण को लेकर फ्रांस में क्रान्ति का श्रीगणेश हुआ।
4. बौद्धिक कारण :
विचारकों और दार्शनिकों ने फ्रांस की राजनीतिक एवं सामाजिक त्रुटियों का भण्डाफोड़ किया और सर्वसाधारण के हृदय में तत्कालीन व्यवस्था के प्रति असन्तोष, घृणा और विद्रोह की भावना को तीव्र कर दिया। मांतेस्क्यू, वोल्तेयर और रूसो की विचारधाराओं से मध्यम वर्ग सबसे अधिक प्रभावित था।
मांतेस्क्यू :
द स्पिरिट ऑफ लॉज' (The Spirit of Laws) नामक पुस्तक में मांतेस्क्यू ने समाज और शासन व्यवस्था की खामियों की तीव्र आलोचना की। इंगलैण्ड की शासन व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए उसने शक्ति-पार्थक्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसका उद्देश्य राजा की शक्ति को सीमित करना था। उसने वैधानिक या सीमित जतंत्रीय व्यवस्था का समर्थन किया। उसके विचारों का तत्कालीन सभ्य समाज पर बड़ाही जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। उसके विचारों से फ्रांस की जनता में स्वतंत्रता की भावना का संचार हुआ।
वोल्तेयर : वोल्तेयर ने अपने व्यंग्यात्मक लेखों द्वारा सामाजिक तथा विशेषकर धार्मिक कुप्रथाओं पर जबर्दस्त प्रहार किया। उसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बड़ी बल दिया। उसने अपने लेखों के माध्यम से निरंकुश राजतंत्र को सारे फ्रांस में निन्दनीय तथा उपहासास्पद बना दिया।
रूसो :
क्रान्ति लाने में रूसो की विचारधारा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। रूसो की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है 'सामाजिक समझौता' (Social contract)। उस पुस्तक में उसने लिखा था कि मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न हुआ है, परन्तु सर्वत्र पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है और कुछ व्यक्तियों ने नाजायज ढंग से अपनी शक्ति बढ़ाकर स्वयं को स्वामी और अन्य को गुलाम बना लिया है। रूसो ने स्पष्ट कहा कि ऐसी स्थिति सामाजिक समझौता के विरुद्ध है। उसने कहा कि देश के जीवन में व्याप्त बुराइयाँ 1 राजा तभी दूर हो सकती हैं जब राज्य तथा समाज दोनों में जनसाधारण की इच्छा को सर्वोपरि तथा स्थान दिया जाय। रूसो के क्रान्तिकारी विचारों से फ्रांस की जनता अत्यधिक प्रभावित हुई।दिदरो :
दिदरो ने इसी समय अपने 'बृहत् ज्ञानकोश' की रचना की। ज्ञानकोश में सभी विषयों पर आलोचनात्मक ढंग से प्रकाश डाला गया था। इसका भी लोगों पर प्रभाव पड़ा। इस तरह इन लेखकों ने मानसिक क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी और क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया। अर्थशास्त्र के कुछ लेखकों ने आर्थिक स्वतंत्रता की मांग की जिसका फ्रांस में नितान्त अभाव था।
5. विदेशी घटनाओं का प्रभाव :
इंगलैण्ड का प्रभाव :
फ्रांस के पड़ोसी देश इंगलैण्ड में संसदीय शासन-पद्धति स्थापित हो चुकी थी। फ्रांस के लोग इंगलैण्ड की इस शासन-व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे।और अपने देश में इसी प्रकार की व्यवस्था कायम करने के लिए सोच रहे थे। संसदीय व्यवस्था के प्रयोग की इच्छा का एक ही कारण था और वह था- इंगलैण्ड का प्रभाव।अमेरिका का प्रभाव :
अमेरिका में इस क्रान्ति के पहले आजादी की लड़ाई छिड़ी थी। फ्रांस के सैनिकों ने अमेरिकी स्वातंत्र्य युद्ध में भाग लिया तथा रूसो आदि विचारकों के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों की विजय देखी थी। इसका गहरा असर उनपर पड़ा। वे अमेरिका की सफलता से प्रभावित हुए और अपने देश में भी उसी प्रकार की व्यवस्था कायम करने को व्यग्र हो उठे ।आयरलैण्ड का प्रभाव :
आयरलैण्ड की घटनाओं ने भी लोगों को प्रभावित किया। सो की आयरलैण्ड के निवासियों ने 1772 से 88ई० के बीच निरंकुश राजतंत्र के विरुद्ध आन्दोलन कर कुछ राजनीतिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं।
6. क्रान्ति के तात्कालिक कारण :
(1) राजा का चरित्र :
क्रान्ति के प्रारम्भ के समय लुई सोलहवाँ फ्रांस की गद्दी पर था। वह एक अयोग्य और आलसी शासक था। यदि लुई चौदहवें की तरह वह दृढ़ और स्थिर विचार का शासक होता, तो सम्भवतः फ्रांस में क्रान्ति टाली जा सकती थी। लेकिन उसमें इन गुणों का नितान्त अभाव था। वह पूरी तरह अपने दरबारियों और अपनी रानी के प्रभाव में या उसकी रानी मारी एन्वायेनेत भी बड़ी अदूरदर्शी महिला थी। वह अनायास ही फ्रांस के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप किया करती थी। फ्रांस में फिजूलखर्ची के साथ उसका नाम जुड़ गया था। वह जो चाहती थी, राजा से करवा लेती थी। राजा हुई उसके हाथों की कठपुतली था।(ii) वित्तीय संकट :
लुई सोलहवें के 1774 ई० में गद्दी पर आते ही देश की आर्थिक स्थिति रसातल की ओर जाने लगी। यह ठीक है कि उसने गद्दी पर बैठने के बाद ही आर्थिक स्थिति में सुधार लाने की चेष्टा की। इसके लिए उसने तुजों और नेकर जैसे कुछ मंत्रियों की नियुक्ति की। इन लोगों ने आर्थिक स्थिति में सुधार लाकर क्रान्ति से देश को बचाने का प्रयास अवश्य किया, लेकिन उनके प्रयास असफल रहे। दरबारियों के षड्यंत्र ने उनके प्रयासों को असफल बना दिया। जब हुई असफल रहा तो बाध्य होकर उसे इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाना पड़ा। इस्टेट्स जनरल के अधिवेशन के साथ ही फ्रांस में क्रान्ति आरम्भ हो गयी।क्रान्ति का विस्फोट :
राष्ट्रीय सभा की स्थापना इस्टेट्स जनरल फ्रांस की संसद थी जिसकी स्थापना मध्ययुग में हुई थी। इसमें तीन सदन थे- कुलीन, पादरी और जनसाधारण के । इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन जैसे ही शुरू हुआ, जनसाधारण के प्रतिनिधियों ने यह मांग की कि तीनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन हो और व्यक्तियों के आधार पर वोट की गिनती हो। पर ऊपर के दो सदनों ने इस प्रस्ताव को नहीं माना। इसके बाद ही तृतीय इस्टेट्स के लोगों ने स्वयं को फ्रांस की राष्ट्रीय एसेम्बली घोषित कर दिया। बाद में। अन्य सदनों के सदस्य भी इसमें सम्मिलित हो गये और राजा को भी इसे मान्यता देनी पड़ी। अब इस्टेट्स जेनरल फ्रांस की राष्ट्रीय सभा बन गयी। तृतीय इस्टेट्स को राष्ट्रीय सभा की मान्यता मिलना क्रान्तिकारी शक्ति की पहली विजय थी।
बास्तिल का पतन :
जिस समय वर्साय में इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन हो रहा था उस समय पेरिस में हजारों भूखों नंगे स्त्री-पुरुष तथा बेकार व्यक्तियों की भीड़ जमा हो गयी थी। सरकार के विरुद्ध उनका क्रोध बहुत बढ़ गया था। 14 जुलाई, 1789 ई० को जनता संगठित होकर बास्तिल के किले की ओर चल पड़ी। यह किला फ्रांस में निरंकुशतंत्र का प्रतीक माना जाता था। भीड़ ने बास्तिल के किले पर हमला कर उसके गवर्नर और रक्षकों को मार डाला। इसके बाद बन्दियों को मुक्त कर दिया गया। बास्तिल के पतन का प्रभाव फ्रांस के देहातों पर पड़ा। किसानों ने सामन्तों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। बहुत-से सामन्तों को मार डाला गया। इस घटना का असर सारे देश पर पड़ा तथा क्रान्तिकारियों को संगठित होने की प्रेरणा मिली। फ्रांस में 14 जुलाई को राष्ट्रीय छुट्टी मनायी जाती है।सामन्तवाद का अन्त :
बास्तिल के पतन के बाद फ्रांस में अव्यवस्था फैल गयी। सामन्तवादी व्यवस्था को कायम रखना अब सम्भव नहीं था। अतः राष्ट्रीय सभा ने के 4 अगस्त, 1789 ई० को अनेक प्रस्ताव पारित कर सामन्तवादी व्यवस्था को खत्म कर दिया।मानवीय अधिकारों की घोषणा :
सामन्तवाद के अन्त के बाद सबसे पहले मनुष्य के अधिकारों की घोषणा की गयी। इस घोषणा द्वारा यह घोषित किया गया कि सभी मनुष्य बराबर हैं और राज्य की सर्वोच्च सत्ता जनता के हाथ है। फ्रांस के नागरिकों को मूल अधिकार दिये गये तथा शीघ्र ही नया संविधान बनाया गया जिसे 1791 ई० का संविधान कहते हैं। इसके अनुसार निरंकुश राजतंत्र को खत्म कर वैधानिक राजतंत्र की स्थापना की गयी। जनता के प्रतिनिधियों के हाथ राज्य की वास्तविक सत्ता आ गई। फ्रांस में फैली निरंकुश राजतंत्रीय सत्ता का युग समाप्त हो गया। चर्च की सम्पत्ति 5 राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। सभी पादरी राज्य के सेवक घोषित कर दिये गये। पादरियों के लिए एक लौकिक विधान बना जिसके अनुसार पादरियों को राजभक्ति ही शपथ लेनी पड़ी।आतंक का राज्य :
कुछ दिनों के बाद फ्रांस में उग्र राजनीतिक पार्टियाँ कायम होने लगीं। इनमें जेकोबिन और जिरोंदिस्ट प्रमुख थे। इनका उद्देश्य था राजतंत्र का खात्मा।ये विदेशों में भी क्रान्ति की विचारधारा का प्रचार करना चाहते थे। इनके रुख को देखकर निरंकुश राजे घबड़ा उठे। हत्याकाण्ड और खून का सिलसिला एक बार चला तो उसने फ्रांस में एक आतंक का राज्य स्थापित कर दिया। 2 और 3 सितम्बर, 1792 ई० को फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना की गयी। राजा का पद समाप्त कर दिया गया और लुई पर मुकदमा चलाया गया। 12 जनवरी, 1793 ई० को उसे प्राणदण्ड दया गया । लुई की फाँसी के साथ ही हत्याओं का दौर प्रारम्भ हुआ। जून, 1793 से 1794 ई० तक फ्रांस में यह दौड़ चलती रही। जून, 1793 ई० में जिरोंदिस्ट दल के अनेक नेताओं की हत्या कर दी गई।शासन 19 सदस्यों वाली सुरक्षा समिति को सुपुर्द कर दिया गया। उग्रवादी रॉब्सपियर इस समिति का नेता था। राजपक्ष के समर्थक होने अथवा क्रान्तिकारी विचारों के विरोधी होने के सन्देहमात्र से लोगों पर मुकदमा चलाया जाता था और उन्हें प्राणदण्ड दिया जाता था। रानी को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया। फ्रांस में किसी का हा भी जीवन सुरक्षित नहीं था। सन्देहमात्र पर बड़े-बड़े नेता और सेनानायकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें प्राणदण्ड दिया जाता था। रॉब्सपियर ने इस समय फ्रांस की सम्पूर्ण सत्ता 59 अपने हाथ में ले लिया था। लेकिन उसका सितारा भी बहुत दिनों तक नहीं चमका। इस राष्ट्रीय सभा में उसके विरुद्ध अभियोग चलाया गया। उसने भागने का प्रयास किया, कर परन्तु उसे गोली का शिकार होना पड़ा। 1794 ई० में उसके अन्त के साथ ही आतंक राज्य का भी अन्त हो गया।
डायरेक्टरी शासन के चार वर्ष
नेशनल कन्वेंशन के बाद 1795 ई० से 1799 तक फ्रांस पर डायरेक्टरी का शासन रहा। परन्तु यह सरकार शासन-प्रबन्ध सुचारु रूप से नही चला सकी। डायरेक्टरी के सदस्य बड़े ही अयोग्य और भ्रष्ट थे। उनकी अयोग्यता ने फ्रांस के विरोधियों को संगठित होने का मौका दिया। एक गुट बना और युद्ध में भी फ्रांस की हार होने लगी। इस पराजय और अपमान के कारण शासन के प्रति लोगों का रोष भी बढ़ गया। इस विषम परिस्थिति ने नेपोलियन नापोर्ट के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर दिया। नेपोलियन द्वारा सीरिया और तुकी की विजय के बाद फ्रांस लौटने पर उसका भव्य स्वागत हुआ। उस स्वागत ने नेपोलियन के भाग्य का दरवाजा खोल दिया। उसने अवसर पाकर डायरेक्टरी शासन को समाप्त कर दिया तथा फ्रांस की आन्तरिक शासन व्यवस्था को सुधारने के लिए कदम बढ़ाया।क्रान्ति का स्वरूप :
क्रान्ति के परिणाम :
फ्रांस की क्रान्ति विश्व के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। परिणामों को हम निम्नलिखित शीर्षकों में बाँट सकते हैं :
(I) सामन्तवाद का अन्त:
सदियों से चली आ रही सामन्तवादी प्रथा का अन्त इस क्रान्ति ने किया तथा समानता के सिद्धान्त का विकास किया। इस क्रान्ति के फलस्वरूप कुलीनों के सभी विशेषाधिकार समाप्त हो गये। बेगारी और सामन्ती कर की प्रथा सदा के लिए उठा दी गयी। क्रान्ति ने एक नया और उदारवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्था को जन्म दिया। क्रान्ति का प्रभाव अन्य यूरोपीय देशों पर भी पड़ा और वहाँ भी सामन्ती प्रथा का अन्त अवश्यम्भावी हो गया।
(ii) प्रजातंत्र का विकास
प्रजातंत्र की परम्परा विकसित करने में फ्रांस की क्रान्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। फ्रांस की क्रान्ति ने निरंकुश राजतंत्र का अन्त कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि शासन का भार केवल एक व्यक्ति के हाथ न रहकर तथा सम्प्रभुता केवल राजा तक ही सीमित न रहकर सभी प्रजा के हाथों हो ।
(III) जन-आन्दोलनों की शुरुआत
क्रान्ति में फ्रांस की जनता ने प्रत्यक्ष भाग लिया था। इससे यूरोप में जन-आन्दोलन की परम्परा का विकास हुआ। फ्रांस में ही पहले-पहल जन-आन्दोलन को सफलता मिली। इससे जनता में नयी चेतना आयी और आत्मविश्वास की भावना जगी। अब संगठित होकर जनता देश की राजनीति में भाग लेने लगी।
(iv) व्यक्ति की महत्ता :
फ्रांस की क्रान्ति ने मनुष्य के व्यापक और मूलभूत अधिकारों की घोषणा की तथा स्वतंत्रता और समानता के सिद्धान्त प्रतिपादित किये। | अभी तक समाज में साधारण व्यक्ति का कोई महत्व नहीं था। लेकिन मान्य के मूल अधिकारों की घोषणा करके क्रान्ति ने पहले पहल साधारण व्यक्ति की महत्ता स्वीकार की। प्रत्येक व्यक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली तथा जनता की इच्छा सर्वोपरि हो गयी वैयक्तिक स्वतंत्रता का सिद्धान्त स्थापित हुआ।
(v) राष्ट्रीयता का विकास
राष्ट्रीयता की भावना का विकास फ्रांस की क्रान्ति की अभूतपूर्व देन है। फ्रांस के लोग विदेशी हमले से देश की रक्षा के लिए सब कुछ कर बैठे। उन्होंने राष्ट्रीय एकता का अनुभव किया और वे देश की रक्षा के लिए अपने जीवन की कुर्बानी देने को भी तैयार हो गये। फ्रांस की इस भावना का प्रचार पूरे विश्व में प्रत्येक देश में राष्ट्रीय राज्य की स्थापना हुई।
(vi) धार्मिक स्वतंत्रता :
फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने धार्मिक स्वतंत्रता के सिद्धान्त को स्वीकार कर एक नया आन्दोलन शुरू किया। अभी तक यूरोप में राजनीति तथा धर्म में घनिष्ठ सम्बन्ध था। लेकिन क्रान्ति के फलस्वरूप राजनीति और धर्म अलग अलग हो गये। फ्रांस की क्रान्ति ने धर्म-निरपेक्ष राज्य के सिद्धान्त का विकास किया। सबको धार्मिक स्वतंत्रता मिली तथा धर्म को व्यक्तिगत विषय माना गया।
(vii) समाजवाद का प्रारम्भ:
समाजवादी आन्दोलन के विकास में फ्रांस के जेकोबिन क्रान्तिकारियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने सम्पन्न वर्गों के विरुद्ध गरीबों और शोषितों का पक्ष लिया था। आर्थिक क्षेत्र में उन्होंने समानता के सिद्धान्त का समर्थन किया था। इस उद्देश्य से उन्होंने कई प्रयास भी किये थे परन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। फिर भी राजनीति में समाजवादियों को जेकोबिन परम्परा से बड़ी प्रेरणा मिली।
(viii) शिक्षा में सुधार
फ्रांस की क्रान्ति ने शिक्षा का भार चर्च के ऊपर से हटा दिया और सरकार के हाथ में सौंप दिया। इस प्रकार शिक्षा-पद्धति धर्म के प्रभाव से मुक्त हो गयी। क्रान्ति के समय और बाद में शिक्षा-सम्बन्धी और भी कई सुधार किये गये । नेपोलियन ने पेरिस में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की और नवीन ढंग से शिक्षा की व्यवस्था की। उसने शिक्षा-पद्धति में आमूल परिवर्तन कर दिया।
फ्रांस की क्रान्ति का विश्व पर प्रभाव :
फ्रांस की क्रान्ति का प्रभाव विश्व पर भी व्यापक रूप से पड़ा था। क्रान्तिकारियों 'कुछ ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित किये थे जो सम्पूर्ण मानव समुदाय के हित में था। मानवाधिकारों का घोषणापत्र "सभी मनुष्यों के लिए, सभी कालों के लिए, प्रत्येक देश के लिए और सारे संसार के लिए उदाहरणस्वरूप था।" फ्रांसीसी क्रान्ति की सफलता से प्रभावित होकर अन्य देशों में भी सामन्ती अवशेषों और निरंकुश शासन को समाप्त करने का प्रयास प्रारम्भ हुआ। पददलित एवं परतंत्र जातियों ने इस क्रान्ति से अनुप्राणित होकर मुक्ति के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया। 1830, 1848 और 1870 ई० में विश्व के अनेक देशों में क्रान्तियाँ हुई। 1917 ई० में रूस और 1949 ई० में चीन में क्रान्तियाँ हुई। मानव मुक्ति-मार्ग पर चल पड़ा। पोलैण्ड, इटली और जर्मनी में एकीकरण आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। इंगलैण्ड में संसदीय व्यवस्था में सुधार के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का सिद्धान्त सम्पूर्ण मानव समाज के लिए फ्रांसीसी क्रान्ति की शाश्वत देन है। विभिन्न देशों की शोषित और पीड़ित जनता स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का नारा बुलन्द करने लगी और इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर उन देशों में आन्दोलन भी चलाये गये। उसी समय से प्रजातंत्र का मूल उद्देश्य स्वतंत्रता. समानता और बन्धुत्व का आदर्श माना जाता रहा है।
फ्रांसीसी क्रान्ति ने राष्ट्रीयता की भावना को भी जगाया। जर्मनी, इटली, स्पेन और प्रशा पर राष्ट्रीयता का प्रभाव पड़ा। इसी भावना के कारण जर्मनी और इटली में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। यूरोप में अनेक शक्तिशाली राष्ट्रों का उदय हुआ । 'सम्पूर्ण युद्ध की धारणा' का उदय भी फ्रांसीसी क्रान्ति के कारण हुआ। समाजवादी परम्परा का जन्म भी इसी क्रान्ति के कारण हुआ। आधुनिक विश्व में समाजवाद एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विचारधारा के रूप में उभरा है।
फ्रांस की क्रान्ति ने जन-आन्दोलन की परम्परा को आगे बढ़ाया तथा जनतंत्रीय राज्यों के उदय में सहायक हुआ। राजनीतिक जागरण और स्वाधीनता संग्राम में क्लबों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है- इस तथ्य को फ्रांस की क्रान्ति ने ही स्पष्ट किया। आगे चलकर विश्व के अन्य देशों पर इसका प्रभाव पड़ा। अन्य देशों में क्रान्तिकारियों ने क्लबों की स्थापना की। उन्होंने क्लबों के माध्यम से आम जनता को राजनीतिक शिक्षा दी। फ्रांस की क्रान्ति ने जन-कल्याणकारी राज्य की विचारधारा को भी व्यावहारिक रूप देने का प्रयास किया ।
नेपोलियन का उदय :
1769 ई० में फ्रांस के एक उपनिवेश कोशिका द्वीप में नेपोलियन का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। वह एक बड़ा ही होनहार तथा प्रतिभा सम्पन्न युवक था। शुरू से ही उसने सैनिक शिक्षा पायी थी। जब फ्रांस में क्रान्ति हुई, तो नेपोलियन ने अपना पूरा समर्थन दिया। कुछ दिनों के बाद वह कोशिका से पेरिस आया और उसने जेकोबिन दल की सदस्यता ग्रहण कर ली क्रान्ति के समय उसने अपना जीवन एक साधारण सिपाही के रूप में प्रारम्भ किया। लेकिन उसमें सैनिक प्रतिभा थी। अपनी योग्यता के कारण वह आगे बढ़ता गया। सर्वप्रथम उसने इटली पर आक्रमण किया और यहाँ आस्ट्रिया को परास्त किया तथा इटली को विदेशियों के चंगुल से मुक्त किया। इसके बाद वह मिस्र के अभियान पर गया। लेकिन ब्रिटिश नौसेना ने उसे आगे नहीं बढ़ने दिया। फिर भी फ्रांस की जनता उसे अपने उद्धारक के रूप में देखने लगी। इस समय फ्रांस में डायरेक्टरी का शासन काफी बदनाम हो चुका था। नेपोलियन ने इसका अन्त करने का निश्चय किया। उसने अपनी सैन्य शक्ति के सहारे परिस्थिति का लाभ उठाया। 1799 ई० में उसने बल-प्रयोग कर डायरेक्टरी के बदनाम और असफल शासन का अन्त कर दिया और स्वयं फ्रांस का शासक बन बैठा। इस तरह फ्रांस में एक सैनिक तानाशाही कायम हो गयी। क्रान्ति का युग अब समाप्त हो गया। 1804 ई० में नेपोलियन फ्रांस का सम्राट बन गया।