ELECTION

ELECTION

लोकतंत्र में निर्वाचन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। निर्वाचनरूपी मशीन ही लोकतंत्र की गाड़ी को आगे बढ़ाती है। यह बताया जा चुका है कि लोकतंत्र दो प्रकार का होता है— प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता स्वयं शासन नहीं करती; जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही इसमें शासन करते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने के लिए ही निर्वाचन की आवश्यकता पड़ती है। निर्वाचन में एक निश्चित आयु तक सभी स्त्री-पुरुषों को बिना किसी भेदभाव के मतदान में भाग लेने का अधिकार होता है। इसे ही सार्वजनिक वयस्क मताधिकार कहते हैं। निर्वाचन में विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों को खड़ा करते हैं। इसके लिए निर्वाचनक्षेत्र बनाए जाते हैं। किसी निर्वाचनक्षेत्र में जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं वह निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। जिन व्यक्तियों को मत देने का अधिकार मिलता है उन्हें ही मतदाता कहा जाता है। स्वतंत्र भारत के नागरिकों को भी मताधिकार दिया गया है। भारत में भी सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। भारत में सामान्य निर्वाचन, मध्यावधि निर्वाचन, उपनिर्वाचन आदि होते रहते हैं। निर्वाचनसंबंधी विभिन्न प्रक्रियाएँ अपनाई गई हैं। एक निष्पक्ष निर्वाचन आयोग का गठन किया गया है जिसके ऊपर विभिन्न निर्वाचनों को संपन्न करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। निर्वाचनसंबंधी प्रक्रिया में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा निर्वाचन में सुधार के लिए कदम भी उठाए जाते हैं।

सार्वजनिक वयस्क मताधिकार

आधुनिक राज्य बड़े क्षेत्रफलवाले एवं अधिक जनसंख्यावाले राज्य है। ऐसे में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि आधुनिक क सरकारे प्रतिनिधि सरकार है जिनमें प्रतिनिधियों के निर्वाचन की व्यवस्था की जाती है। जनता के उस अधिकार को मताधिकार कहा जाता है जिनके प्रयोग द्वारा यह अपने प्रतिनिधियों का चुनाव मतदान द्वारा करती है। यहाँ हमें निर्वाचन, मताधिकार, वयस्क मताधिकार, सार्वजनिक वयस्क मताधिकार आदि का अर्थ समझना है।

 निर्वाचन का अर्थ 

ELECTION

जनता का मत प्राप्त करने के लिए निर्वाचन का विभिन्न उम्मीदवारों के बीच प्रतिस्पर्द्धा विभिन्न राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारते है। जिस दल को जनता का अधिक समर्थन मिलता है वह बहुमत प्राप्त कर सरकार बना लेता है। इसे सत्तारूढ़ दल के नाम से पुकारते है।

 मताधिकार का अर्थ—

मत देने के अधिकार को मताधिकार कहा जाता है। लोकतंत्र में अधिकांश लोगों को मताधिकार देकर शासन का भागीदार बनाया जाता है। वयस्क मताधिकार की व्यवस्था इसी प्रयास का परिणाम है।

वयस्क मताधिकार का अर्थ 

एक निश्चित उम्र के पुरुष और नारी को जब मतदान का अधिकार मिल जाए तो उसे वयस्क मताधिकार कहते है। मताधिकार देने में शिक्षा, संपत्ति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता।

सार्वजनिक वयस्क मताधिकार का अर्थ-

जब देश की जनसंख्या के सभी वयस्क स्त्री-पुरुष मत देने का समान अधिकार रखते हैं तब इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार कहते हैं। भारत में भी सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की पद्धति अपनाई गई है। भारत में वयस्क मताधिकार की सीमा 18 वर्ष निश्चित की गई है। अमेरिका, ब्रिटेन और रूस में भी नागरिकों को 18 वर्ष की आयु में ही मताधिकार प्राप्त है।

सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के गुण- 

सार्वजनिक वयस्क मताधिकार को प्रतिनिधि सरकार पद्धति का आधार माना गया है। लोकतंत्र में सार्वजनिक वयस्क मताधिकार उपयोगी और लाभदायक होता है। इसके गुण निम्नलिखित हैं

1. यह लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुरूप है।

 2. इससे जनता को अपने शासक के चयन का अवसर मिलता है।

3. यह लोकतंत्र को समानता के सिद्धांत पर आधृत करता है। एक व्यक्ति, एक मत' का सिद्धांत राजनीतिक समानता के सिद्धांत का प्रतीक है। इस व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक को एकसमान मताधिकार दिया जाता है, चाहे वह किसी भी वर्ग, धर्म, जाति या लिंग का हो।

4. इससे नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है। मतदान के अवसर पर नागरिकों को राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों का ज्ञान हो जाता है। दल की नीतियों, सिद्धांतों तथा कार्यक्रमों के आधार पर ही मतदाता किसी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करता है।

5. मताधिकार से नागरिकों में स्वाभिमान की भावना जागरित होती है। उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास का अधिक अवसर प्राप्त होता है।

6. वयस्क मताधिकार पद्धति से सार्वजनिक हित की भी रक्षा होती है।

7. इससे जनता में राष्ट्रप्रेम की भी भावना बढ़ती है। जनता राष्ट्र के विकास के लिए अधिक से अधिक प्रयत्नशील रहती है। 8. जनता में कानूनपालन की प्रवृत्ति भी बढ़ती है। 'विधि के शासन' की स्थापना

में मदद मिलती है। इससे लोकतंत्र की नींव सशक्त होती है। 9. वयस्क मताधिकार के कारण राज्य में विद्रोह आदि होने की संभावना भी कम रहती है।

सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के दोष-कुछ विद्वानों ने सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के दोषों की ओर भी ध्यान आकृष्ट कराया है। इसके दोष निम्न है

1. वयस्क मताधिकार पद्धति के अंतर्गत समानता के सिद्धांत के नाम पर मूर्खो को भी मताधिकार प्राप्त हो जाता है।

2. अनेक कारणों से मताधिकार का दुरुपयोग भी होता है। अधिकांश जनता मताधिकार के महत्त्व को नहीं समझ पाते हैं।

 3. सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के अंतर्गत स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से मताधिकार दिया जाता है, परंतु पुरुषों की तुलना में महिलाएँ मताधिकार का सही प्रयोग नहीं कर पातीं।

4. सबसे दुर्भाग्य की बात यह है कि इस पद्धति के अंतर्गत मूखों और विद्वानों मे कोई अंतर नहीं रखा जाता है।

5. वयस्क मताधिकार पद्धति के अंतर्गत शासन को अनेक व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

6. सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के कारण निर्वाचन में मार-पीट, लूट-खसोट तथा अन्य हिंसात्मक कार्यवाहियाँ होती हैं। सर्वत्र भय और आतंक का वातावरण बना रहता है।

सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के अंतर्गत गुण के अलावा दोष भी हैं, किंतु अनेक दोष रहने पर भी इस पद्धति से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। अधिकांश देशों में इस पद्धति को ही गले लगाया गया है। आवश्यकता इस बात की है कि मतदाताओं को शिक्षित तथा जागरूक बनाया जाए जिससे मताधिकार का सही उपयोग हो; सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की पद्धति तभी उपयोगी हो सकती है।

भारत में निर्वाचन

ELECTION

भारत में निर्वाचन करानेवाली संस्था का नाम 'निर्वाचन आयोग' है। इस आयोग का सबसे बड़ा पदाधिकारी मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय निर्वाचन आयुक्तों सहित कुछ अन्य निर्वाचन आयुक्त भी होते है। निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्षों के लिए की जाती है। सामान्यतः मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उनके पद से नहीं हटाया जा सकता। कुछ विशेष परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटानेवाली प्रक्रिया के अनुसार ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटाया जा सकता है। वर्तमान में एन. गोपालास्वामी भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त (Chief Election Commissioner) है। 

               केंद्र की तरह प्रत्येक राज्य में भी निर्वाचन आयोग की शाखा खोली जाती है। राज्य स्तर पर निर्वाचन के सबसे बड़े अधिकारी मुख्य निर्वाचन अधिकारी के नाम से पुकारे जाते है। मुख्य निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति संबंधित राज्य सरकार के परामर्श से मुख्य निर्वाचन आयुक्त करता है।

निर्वाचन आयोग के मुख्य अधिकार और कार्यों का वर्णन निम्नांकित प्रकार से किया जा सकता है 

(i) विभिन्न संस्थाओं, जैसे संसद, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए मतदाताओं की सूची तैयार करना।

(ii) विभिन्न चुनावों और उपचुनावों का पर्यवेक्षण करना। 

(iii) संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचन के लिए निर्वाचनक्षेत्रों का निश्चय करना।

(iv) निर्वाचन कार्यक्रम निर्धारित करना; जैसे—नामांकन की तिथि, उम्मीदवारों के नामांकन पत्र की जाँच की तिथि तथा मतदान की तिथि निश्चित करना।

(v) मतदान के लिए नियमों का निर्माण करना आवश्यक संख्या में मतदान केंद्रों की स्थापना की व्यवस्था करना, पर्याप्त संख्या में मतदान अधिकारी की नियुक्ति करना, मतदान के परिणामों की घोषणा करना आदि निर्वाचन आयोग के मुख्य कार्य है।

(vi) राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों तथा मतदाताओं के लिए एक आचारसंहिता बनाना भी निर्वाचन आयोग का ही कार्य है।

(vii) चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित करना तथा उम्मीदवारों द्वारा प्रस्तुत चुनाव खर्च के लेखा का निरीक्षण करना। 

(viii) राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय तथा राज्यस्तरीय रूप में मान्यता देना तथा उनके लिए चुनावचिह्न निर्धारित करना।

 (ix) अपनी नीति और कार्यक्रमों के समुचित प्रसार के लिए राजनीतिक दलों द्वारा रेडियो और टेलीविजन के प्रयोग का समय निर्धारित करना।

(x) विभिन्न चुनावचिह्नों की एक सूची प्रसारित करना जो निर्दलीय उम्मीदवारों को आवंटित किया जा सके।

(xi) राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा भेजे गए निर्वाचन संबंधी विवादों और याचिकाओं का निपटारा करना भी निर्वाचन आयोग का एक मुख्य कार्य है।

1998 में बारहवीं लोकसभा के निर्वाचन के पूर्व 10 जनवरी 1998 को निर्वाचन आयोग ने एक अधिसूचना जारी की जिसमें राष्ट्रीय दलों, राज्यस्तरीय दलों एवं अमान्य पंजीकृत दलों की सूची प्रकाशित कर दी गई। भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस, जनता दल, समता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी गई। इस प्रकार राष्ट्रीय दलों की संख्या 7 हो गई। 35 दलों को राज्यस्तरीय दल के रूप में मान्यता दी गई और 612 दलों को अमान्य पंजीकृत राजनीतिक दल घोषित किया गया। 2004 ई. में चौदहवीं लोकसभा के चुनाव के समय 6 राष्ट्रीय दल तथा 48 राज्यस्तरीय दल थे। निर्वाचन आयोग की देखरेख में अबतक 14 बार लोकसभा तथा 14 बार बिहार विधानसभा के चुनाव संपन्न कराए जा चुके हैं। भारत में प्रथम आम निर्वाचन 1952 ई. में शुरू हुआ था।

निर्वाचन की पद्धतियाँ

Electeon

साधारणतः निर्वाचन के दो तरीके होते हैं—प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष निर्वाचन हम उस निर्वाचन को कहते हैं जिसमें मतदाता स्वयं मतदान करके अपने प्रतिनिधियों को चुनता है। उदाहरण के लिए, लोकसभा तथा विधानसभाओं के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष ढंग से होता है। परंतु, जब कोई मतदाता द्वारा निर्वाचित न होकर मतदाता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से बने निर्वाचकमंडल द्वारा चुना जाता है तब उसे अप्रत्यक्ष निर्वाचन कहा जाता है। भारत के राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष ढंग होता है। हमारे देश में निर्वाचन की दोनों पद्धतियाँ वर्तमान हैं। दोनों के अपने-अपने गुण-दोष हैं, जिनका वर्णन संक्षेप में निम्नांकित है—

प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुण- प्रत्यक्ष निर्वाचन के निम्नलिखित गुण हैं 

1. लोगों में राजनीतिक चेतना का उदय

2. गौरव की भावना 

3. मतदाता और प्रतिनिधियों के बीच प्रत्यक्ष संपर्क

4. प्रतिनिधियों में उत्तरदायित्व की भावना

5. भ्रष्टाचार का अभाव

प्रत्यक्ष निर्वाचन के दोष-प्रत्यक्ष निर्वाचन के कुछ दोष भी हैं, जो इस प्रकार हैं

1. मूर्खो के हाथ में निर्णय

2. उम्मीदवारों के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन नहीं

 3. खर्चीली व्यवस्था

4. पेशेवर राजनीतिज्ञों की प्रधानता

अप्रत्यक्ष निर्वाचन के गुण-अप्रत्यक्ष निर्वाचन के भी कुछ गुण हैं. जैसे 

1. व्यापक निर्वाचन क्षेत्र के लिए उपयुक्त

2. अशिक्षित जनता के लिए उपयोगी 3. अच्छे उम्मीदवारों का चुनाव

4. सस्ती भावुकता का अभाव

5. कम खर्च

6. पेशेवर राजनीतिज्ञों का अभाव

अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दोष-अप्रत्यक्ष निर्वाचन में अनेक दोष पाए जाते हैं, जिनमें मुख्य है

1. लोकतंत्र के लिए उपयुक्त नहीं है

2. जनता और प्रतिनिधियों में प्रत्यक्ष संपर्क का अभाव 

3. जनता को राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं मिल पाता

 4. जनता में सहयोग की भावना का अभाव

5. भ्रष्टाचार की अधिकता 

6. उत्तरदायित्व का अभाव

प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष निर्वाचन के संबंध में निश्चित रूप से कुछ आसान नहीं। दोनों निर्वाचन-विधियों के अपने-अपने गुण और दोष हैं। अत:, निश्कर्स के रूप में यही कहा जा सकता है कि विधायकों का चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता चाहिए और राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे महत्त्वपूर्ण पदों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होना चाहिए।

भारत में सामान्य निर्वाचन एवं निर्वाचन प्रक्रिया

सामान्यतः प्रत्येक पाँच वर्ष के अंतराल पर भारत में सामान्य निर्वाचन कराया जाता है। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचन एक ही साथ या अलग-अलग समय पर भी कराए जाते है। निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रमों से संबद्ध अधिसूचना जारी की जाती है। इसके साथ ही निर्वाचन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। निर्वाचन प्रक्रिया को कई चरणों से गुजरना पड़ता है जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है

नामांकन निर्वाचन आयोग द्वारा निर्वाचन हेतु अधिसूचना जारी होते ही विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों को निर्वाचन के मैदान में उतारने के लिए 'टिकट आबंटन का कार्य आरंभ कर देते हैं। अलग-अलग निर्वाचनक्षेत्रों के लिए दलों द्वारा उम्मीदवारों की सूची प्रकाशित होते ही नामांकन पत्र भरने का कार्य शुरू हो जाता है। उम्मीदवारों को अपने निर्वाचनक्षेत्र के निर्वाचन अधिकारी के पास अपने नामांकनपर दाखिल करने पड़ते हैं। नामांकनपत्र के साथ निर्धारित जमानतराशि भी जमा करनी पड़ती है। इस संबंध में नियम यह है कि अगर उम्मीदवार अपने क्षेत्र में डाले गए % भाग से कम मत प्राप्त करता है तो उसकी जमानतराशि जब्त कर ली जाती है। नामांकन की अंतिम तिथि तक नामांकनपत्र जमा किए जाते हैं। तत्पश्चात पहले से निर्धारित तिथि को नामांकनपत्रों की जाँच शुरू की जाती है। इस बात की जाँच की जाती है कि नामांकनपत्रों में दी गई सभी सूचनाएँ सही है अथवा नहीं। यदि नामांकनपत्र में किसी प्रकार की त्रुटि या शंका हो या कोई उम्मीदवार नामांकन के योग्य नहीं ठहराया गया हो तो निर्वाचन अधिकारी उसके नामांकन को अस्वीकृत कर देता है।

उम्मीदवारों द्वारा नामांकन वापस लेने की अंतिम तिथि भी पहले से ही निश्चित रहती है। जो उम्मीदवार निर्वाचन में नहीं कूदना चाहता वह अपना नामांकन वापस ले सकता है। वैसा उम्मीदवार भी नामांकन वापस ले सकता है जो इस प्रत्याशा में नामांकनपत्र जमा करता है कि उसके दल द्वारा उसे स्वीकृति मिल जाएगी परंतु दल द्वारा किसी दूसरे को उस निर्वाचनक्षेत्र के लिए टिकट आवंटित हो जाता है। नामवापसी की अंतिम तिथि के बाद प्रत्येक निर्वाचनक्षेत्र के प्रतियोगी उम्मीदवारों की सूची प्रकाशित कर दी आती है। प्रत्येक उम्मीदवार को अपने चुनावधि पर चुनाव लड़ना पड़ता है।

चुनावचिह्न 

ELECTION

- प्रत्येक राजनीतिक दल का एक चुनावचिह्न होता है जिसका निश्चय निर्वाचन आयोग द्वारा किया जाता है। चुनावचिह्न पर ही मुहर लगाकर मतदाता को मतदान करना पड़ता है। वह पहले से ही यह निश्चित कर लेता है कि उसे किस चुनावचिह्न पर मुहर लगाना है। मतदान हेतु मतपत्र ( ballot paper) छापा जाता है जिसमें उम्मीदवारों के नाम के सामने उनका चुनावचिह्न छपा रहता है। इससे मतदाता को, चाहे वह निरक्षर ही क्यों न हो, अपने उम्मीदवार के पक्ष में मत देना सहज हो जाता है। वह उम्मीदवार का नाम भले ही न पढ़ सके, उसके चुनावचिह्न को पहचानकर अपना मत उसे दे देता है। राष्ट्रीय दलों के चुनावचिह्न की पहचान तो सबों को बहुत पहले से ही हो जाती है। छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का

पंजा (हाथ का), भारतीय जनता पार्टी का कमल, भारतीय साम्यवादी दल का हँसिया और गेहूं की बाली, राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी का घड़ी, बहुजन समाजवादी पार्टी का हाथी तथा मार्क्सवादी साम्यवादी दल का हँसिया हथौड़ा और तारा चुनावचिह्न निर्धारित किए गए हैं। जनवरी 2000 में राष्ट्रवादी कॉंग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता दी गई। सितंबर 2000 में निर्वाचन आयोग ने जनता दल और मार्क्सवादी साम्यवादी दल को राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता समाप्त कर दी थी। बाद में मार्क्सवादी साम्यवादी दल की राष्ट्रीय राजनीतिक दल की मान्यता वापस लौटा दी गई। जनता दल कई दलों में विभक्त हो जाने के कारण राष्ट्रीय दल नहीं रह पाया। वर्तमान में जनता दल दो घटकों में विभक्त है। एक जनता दल (यूनाइटेड) और दूसरा जनता दल (सेकुलर) के नाम से जाना गया। जनता दल के दोनों घटकों ने चक्र चुनावचिह्न पर चुनाव लड़ने का दावा ठोका, परंतु चुनाव आयोग ने जनता दल (यूनाइटेड) को तीर चुनावचिह्न तथा जनता दल (सेकुलर) को जोतता हुआ ट्रैक्टर आवंटित किया चुनावचिह्न का सामान्य निर्वाचन में बहुत अधिक महत्व बढ़ जाता है। चुनाव चिह्न इतने प्रचलित हो जाते हैं कि इनसे ही लोगों को राजनीतिक दल का ज्ञान हो जाता है। कोई भी राजनीतिक दल स्वेच्छा से कोई चिह्न निश्चित नहीं कर सकता। चुनावचिह्न निश्चित करने का दायित्व निर्वाचन आयोग का ही है। यह बात दूसरी है कि राजनीतिक दलों से भी पसंदगी माँगी जाती है और उनकी पसंद का चिह्न स्वीकार कर लिया जाता है। चुनाव चिह्न निर्धारित करते समय निर्वाचन आयोग इस बात का अवश्य ध्यान रखता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के चुनावचिह्न एक-दूसरे से इतना भिन्न रहे कि कोई भ्रम पैदा न हो।

चुनाव अभियान-निर्वाचन प्रक्रिया का तीसरा चरण चुनाव अभियान से प्रारंभ होता है। यह निर्वाचन प्रक्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण माना जाता है। इसके अनुरूप ही चुनाव और सरकार का भविष्य निश्चित हो जाता है। यों तो निर्वाचन की तिथि की घोषणा के साथ ही चुनाव अभियान का कार्य भी प्रारंभ हो जाता है परंतु निर्वाचन आयोग ही यह सुनिश्चित करता है कि चुनाव अभियान का आरंभ किस तिथि को किया जाए एवं उसकी समाप्ति किस तिथि को चुनाव अभियान का अभिप्राय एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें प्रत्येक उम्मीदवार मतदाताओं को अपने पक्ष में मत देने के लिए सहमत कराने का प्रयास करता है। वह मतदाताओं से अनुरोध करता है कि वे उसी के पक्ष में मतदान करें, दूसरे के पक्ष में नहीं उम्मीदवार अपने पक्ष में मतदान के लिए विभिन्न तर्क तो मतदाताओं के समक्ष रखता ही है, साथ ही दूसरे के विपक्ष में भी तर्क देता है कि उन्हें क्यों मत नहीं दें। स्वाभाविक है कि उम्मीदवार के लिए चुनाव अभियान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। चुनाव अभियान के लिए संचार के विभिन्न साधनों का उपयोग किया जाता है। रेडियो, टेलीविजन आदि द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता आम जनता को यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि वे किन उद्देश्यों और हितों के लिए चुनाव लड़ रहे है। चुनाव अभियान के लिए अन्य साधनों को भी अपनाया जाता है; जैसे-पोस्टर लगाना, बैनर लगाना, सभाएँ करना, भाषण देना, नारे लगाना, जुलूस निकालना, मतदाताओं से प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करना, प्रचार करना इत्यादि। इन विभिन्न माध्यमो से मतदाताओं को अपने पक्ष में मत देने के लिए प्रभावित किया जाता है।

चुनाव अभियान में राजनीतिक दलों का घोषणापत्र भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक राजनीतिक दल के कुछ कार्यक्रम, सिद्धांत और उद्देश्य होते हैं। चुनाव घोषणापत्र में उनका उल्लेख कर दिया जाता है। इसके माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दल मतदाताओं से वायदे करते हैं कि शासन में आने पर वे कौन-कौन कार्य करेंगे। जनता के हित में कौन-कौन से कदम उठाए जाएँगे। चुनाव घोषणापत्र जारी कर मतदाताओं को यह बताया जाता है कि उनके राजनीतिक दल की गृहनीति एवं विदेशनीति क्या होगी। चुनाव घोषणापत्र में ही जनता को यह आश्वासन दिया जाता है कि उनके द्वारा सरकार बनाए जाने पर वे जनता के लिए अपने सभी वायदे को निभाएँगे। जो दल पहले से सत्तारूढ़ है वह यह बताता है कि उसने जनता के हित में कौन-कौन से कार्य किए हैं और आगे भी क्या करते रहेंगे। विपक्षी दल वर्तमान सरकार की कमजोरियों की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट कर यह बताने का प्रयास करता है। कि सरकार से उसका विरोध क्यों है। साथ ही, वह यह भी घोषित करता है कि यदि वह सत्ता में आ जाए तो क्या करेगा।

      स्पष्ट है कि चुनाव घोषणापत्र ऐसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं जिनसे राजनीतिक दलों की परख संभव है। चुनाव घोषणापत्र राजनीतिक दलों के विचारों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उनके प्रतिज्ञापत्र भी है। मतदाता भी उन्हें याद रखते हैं और जो दल चुनाव घोषणापत्र में किए गए वायदों को सत्तारूढ़ होने पर नहीं निभा पाते है उन्हें अगले निर्वाचन में मुँह की खानी पड़ती है। अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा नहीं किए जाने पर उनपर विरोधी दलों तथा जनता द्वारा वायदे पूरे करने के लिए दबाव डाले जाते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर उनकी आलोचना की जाती है। चुनाव अभियान के दौरान मतदाताओं को विभिन्न राजनीतिक दलों के विचारों, कार्यक्रमों और उद्देश्यों को जानने का अवसर मिलता है। इससे उनका यह निर्णय करना सुलभ हो जाता है कि उन्हें किसे मत देना है। मतदान की तिथि के 48 घंटे पूर्व ही चुनाव अभियान का कार्य समाप्त हो जाता है।

मतदान 

ELECTION

— निर्वाचन आयोग द्वारा निश्चित तिथि को मतदान कराया जाता है। मतदान के लिए कई मतदानकेंद्र (booth) बनाए जाते हैं। मतदाता मतदानकक्ष में जाते हैं और गुप्त मतदान की प्रक्रिया से अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। प्रत्येक मतदानकेंद्र पर निर्वाचन कराने का उत्तरदायित्व एक पीठासीन पदाधिकारी (presiding officer) पर होता है। उसकी सहायता के लिए पोलिंग ऑफिसर (polling officer) रहते

हैं। मतदानकेंद्र पर शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए पुलिस की भी पर्याप्त व्यवस्था की जाती है। साथ ही, मजिस्ट्रेट पुलिसदल के साथ पेट्रोलिंग करते रहते हैं। प्राय: सुबह सात-आठ बजे से संध्या चार-पाँच बजे तक मतदान चलता रहता है। मतदाता इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) पर उम्मीदवार के नाम के सामने छपे चुनावचिह्न पर बटन दबाकर अपना मत देते हैं। मुहर लगाकर मतदाता द्वारा अपना मतपत्र मतपेटिका में डाल देने की प्रथा अब समाप्त हो गई है। मतदान का समय समाप्त होने पर मशीन जमा करनेवाले मजिस्ट्रेट (collection magistrate) विभिन्न मतदानकेंद्रों में जाकर मशीन संग्रहीत करते हैं। विभिन्न मतदानकेंद्रों की वोटिंग मशीने निर्वाचनक्षेत्र के मुख्यालय में सुरक्षित रखी जाती है।

 मतगणना

 निर्वाचन आयोग द्वारा मतगणना की तिथि निश्चित कर दी जाती है। इलेक्ट्रॉनिक मशीन द्वारा मतदान होने से मतगणना का काम पहले से अधिक विधाजनक हो गया है। मतदान की तिथि को मतगणना करनेवाले अधिकारीगण एक-एक मतदानकेंद्र से आए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को लेकर मतगणना का काम प्रारंभ करते हैं और विभिन्न उम्मीदवारों के प्राप्त मतों की गणना प्रारंभ हो जाती है। सभी मतदान केंद्रों के वोटिंग मशीन से जब सभी उम्मीदवारों के मतों की गणना हो जाती है तब सर्वाधिक मत पानेवाले उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। इस प्रकार, मतगणना और विजयी उम्मीदवार के नाम की घोषणा के हीप्रक्रिया पूरी हो जाती है।

मतदान प्रणालियाँ

ELECTION

मतदान की कई प्रणालियाँ हैं जिनमें कुछ मुख्य हैं

1. साधारण बहुमत 

- मतदान की इस पद्धति में जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त हो जाता है वह निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। उम्मीदवार को मत देनेवाले मतदाताओं के सभी मतों के आधे से एक अधिक आने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि 500 मत डाले जाते हैं और चुनाव मैदान में चार उम्मीदवार हैं तो सबसे अधिक मत पानेवाला ही निर्वाचित घोषित कर दिया जाएगा। चारों उम्मीदवारों को यदि क्रमशः 200, 150, 100 और 50 मत आता है तो 200 मत पानेवाले व्यक्ति निर्वाचित घोषित कर दिए जाएँगे। इसे ही साधारण बहुमत कहते हैं। इस प्रणाली में उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किए जाने के लिए 251 मतों की प्राप्ति आवश्यक नहीं। इस प्रणाली का गुण यह है कि मतगणना आसान होता है। भारत में सामान्य निर्वाचन में यही प्रणाली काम करती है। इस प्रणाली का दोष यह कहा जा सकता है कि उम्मीदवार को जनता का सही विश्वास प्राप्त नहीं होता। इस प्रणाली में उम्मीदवार अल्पमत के आधार पर ही निर्वाचित घोषित कर दिया जा सकता है। सरकार भी उसी दल की बन जा सकती है जिसका समर्थन 35 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं ने किया ऐसा भी होता है कि दूसरे दल को 35 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का दो समर्थन मिला परंतु उसका एक भी सदस्य निर्वाचित नहीं हो सका। साधारण बहुमत प्रणाली में निर्वाचन का यह विरोधाभास देखा जाता है। इन दोषों के होते हुए भी अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में इसी प्रणाली को स्वीकार किया गया है। भारत में भी लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव में इसी प्रणाली को अपनाया गया है।

2. गुप्त मतदान

 अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में गुप्त मतदान की प्रणाली अपनाई गई है। इसका अर्थ है कि मतदाता किस उम्मीदवार तथा किस दल के समर्थन में मत डाल रहा है इसकी जानकारी दूसरे को नहीं हो पाती। इस प्रणाली से निष्पक्ष चुनाव हो पाता है। मतदाता अपनी स्वेच्छा से मताधिकार का प्रयोग करता है। वह निर्भीकतापूर्वक मत देता है। उसे एकांत में मतपत्र पर सिर्फ उम्मीदवारों के नाम के सामने मुहर लगाकर मतपेटिका में मत डाल देना होता है। मतपत्र पर उसे अपना नाम अथवा मतदाता सूची का क्रमांक लिखने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। भारत के निर्वाचन में भी गुप्त मतदान प्रणाली ही अपनाई गई है।

3. आनुपातिक एकल संक्रमणीय मत प्रणाली

- कुछ लोकतांत्रिक देशों में आनुपातिक एकल संक्रमणीय मत प्रणाली अपनाई गई है। इस प्रणाली में मतदाता मतदाताओं के नाम के सामने 1, 2, 3, 4 इत्यादि लिखकर अपनी पसंद व्यक्त करता है। इसका अर्थ है कि मतदाता को यह दर्शाने का अधिकार होता है कि वह किस उम्मीदवार को सबसे अधिक पसंद करता है और उसके बाद प्राथमिकता के अनुसार यह किसे निर्वाचित होना पसंद करेगा। इस प्रणाली में जिस उम्मीदवार को उसने 2 नंबर - पर रखा वह मत भी काम आ जाएगा। इस पद्धति में मतों का हस्तांतरण होता है। उसी उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया जाता है जिसे मतदाताओं का स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो। यदि किसी उम्मीदवार को गणना के बाद स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो सबसे कम मत पानेवाले उम्मीदवार के मतपत्रों पर मिले प्राथमिकताओं को शेष उम्मीदवारों में हस्तांतरित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया तबतक चलती रहती है जबतक किसी उम्मीदवार को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल जाए। इसे उदाहरण द्वारा और भी स्पष्ट किया जा सकता है। यदि मत देनेवालों की संख्या 500 है और उम्मीदवार चार हैं तब किसी भी उम्मीदवार को निर्वाचित होने के लिए कम-से-कम 251 मत मिलना आवश्यक है। मतगणना के समय देखा गया कि प्रथम उम्मीदवार को 200, दूसरे उम्मीदवार को 150, तीसरे उम्मीदवार को 100 और चौथे उम्मीदवार को 50 मत प्राप्त हुए। इसका अर्थ हुआ कि 200 मतदाताओं ने पहले उम्मीदवार के नाम के सामने 1 लिखा, 150 मतदाताओं ने दूसरे उम्मीदवार के नाम के सामने 1 लिखा, 100 मतदाताओं ने तीसरे उम्मीदवार के नाम के सामने 1 लिखा और 50 मतदाताओं ने चौथे उम्मीदवार के नाम के सामने 1 लिखा। आनुपातिक एवं एकल संक्रमणीय मत पद्धति के अनुसार किसी उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित नहीं किया जाएगा। अब चौथे उम्मीदवार के मतों का हस्तांतरण शेष तीनों उम्मीदवार में कर दिया जाएगा। यदि 50 में 30 मतदाताओं ने पहले उम्मीदवार के नाम के सामने 2 लिखा तो पहले उम्मीदवार के मतों की संख्या अब 200 + 30 = 230 हो जाएगी। 50 में 15 ने दूसरे उम्मीदवार के नाम के सामने 2 लिखा तो दूसरे उम्मीदवार का मत अब 150 + 15 165 हो जाएगा। शेष 5 ने तीसरे उम्मीदवार के नाम के सामने 2 लिखा तो तीसरे उम्मीदवार का मत 100+5 105 हो जाएगा। इस हस्तांतरण के बाद भी कोई उम्मीदवार निर्वाचित नहीं किया जाएगा; क्योंकि अभी भी मतदाताओं का स्पष्ट बहुमत किसी उम्मीदवार को प्राप्त नहीं हो सका है। तब तीसरे उम्मीदवार के मतों का हस्तांतरण किया जाएगा। अब इस हस्तांतरण के बाद दोनों बचे उम्मीदवारों में जिसके मतों की संख्या अधिक होगी वही निर्वाचित घोषित किया जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि तीसरे उम्मीदवार के सभी मतों पर दूसरे उम्मीदवार के नाम के सामने ही 2 लिखा गया हो तो पहले उम्मीदवार के मतों की संख्या 230 ही रह जाएगी और दूसरे उम्मीदवार के मतों की संख्या 165 + 100 हो जाएगी और इस प्रकार वही निर्वाचित घोषित कर दिया जाएगा। इसे ही एकल संक्रमणीय मत प्रणाली कहते है। इसमें अनुपात के अनुसार निर्वाचन का निर्णय होता है। भारत में राज्यसभा, विधानपरिषद, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए यही प्रणाली काम करती है।

निर्वाचन संबंधी समस्याएँ

भारत में निर्वाचनसंबंधी अनेक समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं। उन समस्याओं का संक्षिप्त विवरण निम्नांकित रूप में है—
1. वूथ छापामारी -
 देश में चुनावसंबंधी एक भयंकर बीमारी विद्यमान है और वह है बूथ-छापामारी। चुनावदंगल में बूथ छापामारी वह दाँव है जिसे कोई उम्मीदवार दूसरे उम्मीदवार को हराने के लिए लगाता है। जिस उम्मीदवार के पास ताकत है, बोलबाला है, उसके लोग मतदानकेंद्रों (बूथों पर छापामारी कर सारे मत अपने पक्ष में डलवाने में समर्थ हो जाते हैं। बूथ पर मारपीट और संघर्ष की घटना तो आम बात हैं; कभी-कभी खून-खराबी और गोलीकांड जैसी घटनाएँ भी हो जाती हैं। कई बार चुनाव करानेवाले पदाधिकारियों को भी अपनी जान गँवानी पड़ती है।

2. मताधिकार का दुरुपयोग 

भारत में अनेक मतदाता मताधिकार का दुरुपयोग करते पाए जाते हैं। ठीक ही कहा जाता है कि भूखे व्यक्तियों के लिए मतदान का कोई महत्त्व नहीं। देश में भुखमरी की समस्या इतने बड़े पैमाने पर व्याप्त है कि पैसे खर्च करके ऐसे मतदाताओं का मत भी खरीद लिया जाता है। जाति, वर्ग, संप्रदाय जैसी संकीर्ण भावनाओं को उभारकर भी मत प्राप्त कर लिए जाते हैं। चुनावकानून की पूर्ण उपेक्षा की जाती है। देश में चुनाव व्यवहार संहिता का भी सही पालन नहीं किया जाता।

3. दल-बदल

 देश के सामने चुनावसंबंधी सबसे बड़ी समस्या तो दल-बदल की है। विभिन्न नेता अपना दल बदलते रहते हैं, जिससे राजनीतिक अस्थिरता कायम रहती है। दल-बदल विरोधी संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 बन जाने से बहुत हद तक समस्या सुलझने की आशा है। फिर भी, देश में यह समस्या बनी हुई है। जनता दल का दो बार विभाजन इस समस्या का स्पष्ट प्रमाण है।

4. खर्चीला चुनाव- 

आधुनिक युग में चुनाव खर्चीला हो गया है। उम्मीदवार अपनी जीत के लिए पानी की तरह पैसा बहाता है। अतः गरीब परंतु योग्य व्यक्ति चुनाव में खड़ा होने की हिम्मत नहीं कर पाता। यों तो चुनाव में किसी एक उम्मीदवार द्वारा खर्च करने की सीमा भी बाँध दी गई है, परंतु उसका पालन होता ही कहाँ है? स्वाभाविक है कि चुनाव लड़ना कोई आसान काम नहीं रह गया है।

5. अनुशासन का अभाव-

राजनीतिक दलों के लोगों में अनुशासन की कमी भी एक भयंकर समस्या बन गई है। पार्टी के निर्णय की अवहेलना उसके सदस्यों द्वारा ही किया जाना एक आम बात हो गई है। सबसे दुर्भाग्य की बात तो यह है कि कभी-कभी दल के सदस्य अपने दल के उम्मीदवार के विरुद्ध भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रचारकार्य करते पाए जाते हैं।

6. राजनीतिक दलों की भरमार- 

निर्वाचनसंबंधी सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि देश में राजनीतिक दलों की भरमार हो गई है। यह बात सही है कि राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों की संख्या थोड़ी है, परंतु देश में अनेक क्षेत्रीय दलों का गठन हो चुका है। स्वाभाविक है कि देश के मतदाता किसे सही समझें और किसे गलत, यह निर्णय नहीं कर पाते। यह सर्वविदित है कि देश में राजनीतिक दलों की बहुलता अनेक राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न करती है। इससे देश की जनता का राजनीतिक विचार परिपक्व नहीं हो पाता है।

7. राजनीतिक दल ठोस सिद्धांतों पर आवृत नहीं-

भारत में अधिकांश राजनीतिक दलों का गठन ठोस सिद्धांतों पर नहीं हुआ है। अनेक दल संकीर्ण सिद्धांतों पर आधृत हैं और सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित करते हैं। प्रत्येक दल में नारेबाजों की संख्या बढ़ती जा रही है जिससे जनता गुमराह हो जाती है और सही निर्णय नहीं ले पाती। 

8. अन्य समस्याएँ - 

निर्वाचनसंबंधी अन्य कमजोरियों की गणना भी निर्वाचन संबंधी समस्याओं के अंतर्गत ही की जा सकती हैं। ऐसी कमजोरियाँ निम्नलिखित है
(i) निर्वाचन में बेहिसाब खर्च एवं भ्रष्टाचार ।
(ii) केंद्र और राज्य के मंत्रियों द्वारा सरकारी कार्य के नाम पर चुनावी दौरे तथा सरकारी पद एवं सरकारी तंत्रों का दुरुपयोग।
 (iii) निर्वाचन की भनक मिलते ही सत्तारूढ़ दल द्वारा मनमाने ढंग से वैसे सरकारी अधिकारियों का स्थानांतरण जिनके सहयोग से सत्तारूढ़ दल अधिक स्थानों पर विजय

प्राप्त करने की आशा रखता है।

(iv) निर्वाचनसूची बनाते समय भी भ्रष्ट उद्देश्य से सही मतदाताओं का नाम छोड़कर फर्जी मतदाताओं के नाम निर्वाचनसूची में जोड़ दिए जाते है। 
(v) मतदाता याचिका अधिनियम भी दोषपूर्ण है जिससे यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि भ्रष्ट तरीके अपनाने के लिए किस व्यक्ति को दोषी ठहराया जाए।
 (vi) भारत में वैसे दलों और समूहों पर प्रतिबंध लगाने के भी स्पष्ट नियम नहीं है जो चुनाव के नाम पर सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता तथा जातीयता जैसी संकीर्ण भावनाओ को उभारकर देश की एकता और अखंडता पर कुठाराघात करते हैं।

(vii) चुनाव की राजनीति में कुख्यात अपराधियों और समाजविरोधी तत्त्वों को विभिन्न राजनीतिक नेताओं तथा उम्मीदवारों द्वारा बढ़ावा चुनावसंबंधी गंभीर समस्या उत्पन्न करती हैं।
एक टिप्पणी भेजें (0)
और नया पुराने