20वीं सदी के प्रारंभ में सम्प्रदायवाद के विकास के कारण (Reasons for the development of communalism in the early 20th century)
19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विकास के अनेक कारण थे। इनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय है
(i) मुसलमानों की अधोगति तथा उनमें असंतोष की भावना
भारत में ब्रिटिश राज्य को स्थापना मुसलमानों की स्थिति पर एक गहरा कुठाराघात था। देश से उनकी राजनीतिक प्रभुता का सदा के लिए अन्त हो गया। कल के शासक अब दास बन गये। सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में भी तुम्हें कुचलने की नीति अपनायी गयी। सरकारी नौकरियों तथा दस्तकारी के पतन ने उनकी आर्थिक हालत को बिगाड़ दिया। अंग्रेजी शिक्षा नीति को अपनाकर मुसलमानों को सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रगति को अवरुद्ध कर दिया गया। राजनीतिक चेतना भी उनसे जाती रही। इस प्रकार जैसा कि सर विलियन हंटर ने कहा है, "एक अमीर, गर्वपूर्ण तथा और जाति को निर्धन तथा निरक्षर जनसमूह में बदल दिया गया और उसके उत्साह को मिट्टी में मिला दिया गया।" मुसलमानों ने अपनी गिरती स्थिति को महसूस किया और उनमें असंतोष की भावना भर आयी। फलतः उनमें राजनीतिक जागरूकता और विद्रोह की भावना का उदय होने लगा।
(ii) वहाबी आंदोलन:
मुसलमानों में असंतुष्टि की अभिव्यक्ति वहाबी आन्दोलन में पाय जाती है। हिन्दू समाज में ब्रह्म समाज आर्य समाज आदि के रूप में धार्मिक सुधार के आन्दोलन शुरू हुए। इन्होंने हिन्दू धर्म के लुप्त गौरव को जाग्रत करने का प्रयत्न किया। हिन्दू धर्म के जागरण का प्रभाव इस्लाम पर भी पड़ा। मुसलमानों में वहाबी आन्दोलन शुरू हुआ जिसका उद्देश्य इस्लाम की कमजोरियों को दूर कर उसमें स्फूर्ति और जागृति पैदा करना था। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अरव के पुनरुत्थानवादियों ने वहाबी आंदोलन शुरू किया। इससे प्रभावित होकर सैयद अहमद बेल्बी ने इस्लाम धर्म को पुनः अपनी मौलिक पवित्रता का रूप देने के लिए इस आन्दोलन का भारत में भी सूत्रपात किया। आरम्भ में वहावीवाद ने सिखों और अंग्रेजों के विरुद्ध जेहाद का रूप लिया। अंग्रेजी सरकार ने इस आन्दोलन को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया, लेकिन आन्दोलन ने मुसलमानों में जिस धार्मिक तथा साम्प्रदायिक चेतना को जगाया था उसे वह न दया सकी। इस आन्दोलन ने मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता पैदा की। डाक्टर हंटर के मतानुसार, वहावी आन्दोलन भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा आन्दोलन था।
(iii) हिन्दू धर्म आन्दोलन का प्रभाव
उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दू धार्मिक आन्दोलन ने केवल 8 हाथी आन्दोलन को ही प्रश्रय नहीं दिया, बल्कि मुसलमानों को संगठित भी कर दिया ह नवजागरण के प्रतिक्रियास्वरूप मुसलमानों में भी धार्मिक जागृति की भावना आयी। राजा राममोहन राय ने ब्रह्मसमाज की स्थापना की और रूढ़िवादिता तथा बाह्य आडम्बर का खंडन किया; स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य-समाज की स्थापना की और हिन्दुओं में आत्म गौरव को भावना को उत्पन्न किया; स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस ने भी हिन्दुओं में जागृति को लहर दौड दी। ने शुद्धि का कार्यक्रम अपनाया। इसके अतिरिक्त तिलक के शिवाजी समारोह और गणपति महोत्सव को कुछ मुसलमानों ने राष्ट्रीय आंदोलन को कट्टर हिन्दू धार्मिकता के साथ सम्बद्ध कर दिया। धार्मिक आंदोलनों तथा कार्यक्रमों से मुसलमानों का सशंकित हो उठना स्वाभाविक का अतः मुसलमानों में जागृति तथा एकता की भावना ने घर करना शुरू कर दिया।
(iv) अंग्रेजी नीति में परिवर्तन
ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक दिनों में अंग्रेजों ने मुसलमान विरोधी नीति अपनायी। उनकी दृष्टि में मुसलमान साम्राज्य के शत्रु थे और हिन्दू मित्र । उन्होंने ऐसी नीति अपनायी जिनमें मुसलमानों का राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक पतन हो जाय। ऐसी हुआ भी, लेकिन हिन्दू राष्ट्रवाद के उदय होते ही अंग्रेजों ने अपनी नीति में परिवर्तन या कुछ अंग्रेज पदाधिकारियों ने सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया और मुसलमानों से मित्रता करने के पक्ष में तर्क किया। मुसलमान नेता सर सैयद अहमद खाँ और प्रिंसिपल बैंक इस दिशा में विशेष प्रयास किया। फलतः अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों से गठबन्धन शुरू किया और उनमें साम्प्रदायिक भावना उभारने के लिए उनको प्रोत्साहित करना शुरू किया।
(v) 'फूट डालो और शासन करो' की नीति :
मुस्लिम साम्प्रदायिकता ब्रिटिश शासन की चैन थी। अंग्रेजों ने जान-बूझ कर इसे उभारने का प्रयत्न किया। इसका एकमात्र उद्देश्य उभरते हुए. भारतीय राष्ट्रवाद में ज्वार को रोकना था। इसका एकमात्र उपाय था भारतीयों के बीच फूट डालना। उद्धान्यवादियों ने यह महसूस किया कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डालकर ही | नव जाग्रत राष्ट्रवाद के मार्ग में पहुँचाया जा सकता है तथा अन्दर से विभाजित भारतीय उपनिवेश पर स्वेच्छानुकूल शासन किया जा सकता है। कम्पनी के शासन काल में ही बम्बई के गवर्नर माउण्ट | स्टुअर्ट एलफिन्सटन (Mount Stuart Elphinistone) ने कहा था कि, "फूट डालो और शासन करो" पुराना रोमन मंत्र है और यही हमारा भी होना चाहिए।" भारत में पाँव जमते हो अंग्रेजों ने इस नीति का अनुसरण करना शुरू कर दिया। उन्होंने भारत के दो बड़े धार्मिक सम्प्रदायों हिन्दू और मुसलमानों को विभाजित कर शासन करने का निश्चय किया। अशोक मेहता तथा अच्युत पटवर्धन के शब्दों में, 'अपने विख्यात चातुर्य से, जिसने हाल तक उनकी कूटनीति को विश्व में सर्वाधिक शक्तिशाली बना दिया था, ब्रिटिश शासकों ने अपने को हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य में रखकर एक साम्प्रदायिक त्रिकोण की रचना करने का निश्चय किया जिसका के आधार बने।" "फूट डालो और शासन करो" नीति का अनुकरण अंग्रेजों ने सैन्य संगठन से शुरू किया। मुसलमानों को सेना में उच्च पदों से वंचित किया गया और हिन्दुओं को स्थान दिया गया। सरकारी सेवाओं में भी यही किया गया। अन्य क्षेत्रों में भी मुस्लिम विरोधी तथा हिन्दूपक्षी नीति का अनुपालन किया जाने लगा। लेकिन कुछ वर्षों के बाद ब्रिटिश शासकों के रूख में परिवर्तन आया। ये मुसलमानों से साठ-गाँठ बढ़ाने लगे तथा हिन्दू-विरोधी नीति को अपनाने लगे। उन्होंने मुसलमानों को प्रोत्साहित करना शुरू किया और उन्हें साम्प्रदायिक आधार पर विशेष राजनीतिक अधिकार देने की बात करने लगे। धारा सभाओं में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व देकर मुस्लिम साम्प्रदाय की जड़ को मजबूत बनाया गया। ब्रिटिश नीति काफी सफल रही और उसका अन्तिम परिणाम हुआ भारत का विभाजन ।
(vi) बंगाल का विभाजन :
लार्ड कर्जन की कुटिल नीति ने हिन्दू-मुस्लिम भेद-भाव को बढ़ावा दिया। मुस्लिम सम्पदाय को उभारने हेतु तथा दोनों सम्प्रदायों में संघर्ष बढ़ाने के लिए उसने बंगाल विभाजन की योजना बनायी। उसने पूर्वी बंगाल का दौरा किया और मुसलमानों में यह प्रचार किया कि की योजना को मुसलमानों के लाभ के लिए लागू किया गया है। लार्ड कर्जन को कुटनीति में काफी सफलता मिली। मुसलमानों को विश्वास हो गया कि ब्रिटिश सरकार, उनके और हिन्दुओं के हित में कोई मेल नहीं है। अतः वे हिन्दुओं से विमुख होने लगे और राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक होने लगे।
(vii) पृथक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना
भारत में नवजागरण के परिणामस्वरूप विभिन्न सम्प्रदायों एवं जातियों के लोग अपनी पृथक शिक्षण संस्थाएँ खोलने लगे। 1875 ई. में मुसलमनों ने एग्लो-ओरियन्टल कॉलेज की स्थापना की। धार्मिक आधार पर ही अन्य सम्प्रदायों में दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज, सनातन धर्म कॉलेज, खालसा कॉलेज तथा क्रिश्चियन कॉलेज को स्थापना की। धार्मिक जागरण का ही परिणाम था कि मुसलमानों ने देवबन्द में अपना दारूल-उलूम खोला, आर्यसमाजियों ने गुरुकूल स्थापित किये और सनातनियों के ऋषिकुलों की नींव डाली। धार्मिक आधार पर ही अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों ने आधार पर पृथक-पृथक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। इन संस्थाओं ने विभिन्न सम्प्रदायों को निकट लाने की अपेक्षा एक-दूसरे से दूर करना शुरू किया।
(viii) अलीगढ़ आन्दोलन :
मुसलमानों में नवजागरण का संचार करने में अलीगढ़ आन्दोलन का प्रमुख हाथ रहा। इस आन्दोलन के सूत्रधार सैयद अहमद खाँ थे जो अलीगढ़ कॉलेज के प्रिंसपल बेक से प्रभावित थे।