आधुनिक युग में राष्ट्रीय भावना का विकास

 आधुनिक युग में राष्ट्रीय भावना का विकास (Development of national feeling in modern era)

आधुनिक युग में राष्ट्रीय भावना का विकास

भारत एक राष्ट्र के रूप में भारत हमारा राष्ट्र है। हम भारतवासी इस महान राष्ट्र के संतान है। आर्यावर्त की यह भूमि जो सदियों पूर्व विश्व का धर्मगुरु रहा है। यहाँ से बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म विश्व के बहुत से देशों में फैला है। उत्तर में हिमालय एवं दक्षिण में हिन्द महासागर हमारी मातृभूमि के प्रकृति प्रदत्त पहरेदार है। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण यह देश इतिहास में सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था। नालन्दा विश्वविद्यालय के खण्डहर, तक्षशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष चीजें आज भी हमारी स्मृतियों को ताजा कर रही हैं कि प्राचीन समय में हमारा भी वही स्थान विश्व के सामने था जो आज अमेरिका या ब्रिटेन तथा जापान का है। जननी जन्मभूमि का प्रेम स्वर्ग से भी बढ़कर है। हम भारतवासी अपनी जन्मभूमि के लिए प्राणों का बलिदान करना गौरव की बात समझते हैं।
इतिहास इस बात का प्रतीक है कि सदियों तक हमारा देश विदेशियों के हाथों में गुलाम रहा। एक लम्बे संघर्ष के उपरान्त 15 अगस्त, 1947 को भारत विभाजित होकर भारत और पाकिस्तान के रूप में आजाद हुआ। उस समय से लेकर वर्तमान समय तक हम विकास के मंजिलों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक स्थान पर कहा था कि "हम बहुत प्राचीन हैं और पगचिह्नों द्वारा मिटी हुई शताब्दियाँ हमारे कानों में निरन्तर कुछ ध्वनित करती हैं। इस प्रकार सह अस्तित्व एवं सर्वोदय की भावना का जड़ भारत की भूमि, उसके निवासियों के मस्तिष्क और दृष्टिकोण में सामंजस्य प्राप्त करने को रही है। वहीं भारत के साथ पाकिस्तान भी आजाद हुआ पर पाकिस्तान भारत के जैसा प्रगति नहीं कर पाया। उसकी स्थिति आज भी खराब ही हैं।" भारत एक राष्ट्र है , इसके बारे में विष्णुपुराण में लिखा है, कि "वह देश जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय जैसे पर्वत श्रेणियों के दक्षिण में है उसका नाम भारत है। जहाँ की संतान अपने-आप को भारतीय कहती है।" इसीलिए हम अपने आप को भारतवासी की संज्ञा देते हैं। देश-प्रेम की भावना भी अति प्राचीन है। हमारे वेदों में जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। अतएव देश-प्रेम की भावना कोई नहीं बल्कि सनातन है।

भारत राष्ट्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -

राष्ट्रीयता एक आधुनिक भावना है। यूनान में छोटे- छोटे नगर राज्य थे जिनमें यह भावना पूरी तरह विद्यमान थी। मध्य युग में सामन्ती व्यवस्था ने राष्ट्रीयता की भावना को पूरी तरह कुचल दिया। ईसाई धर्म के प्रादुर्भाव ने भी इस भावना की प्रगति को रोका। पन्द्रहवीं सदी में ब्रिटेन और फ्रांस में इस भावना को विकसित होने का मौका मिला। पुनः नेपोलियन के युद्धों, भौगोलिक क्रान्ति एवं रोमांसवाद ने राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया। प्रथम विश्वयुद्ध में तो राष्ट्रीय भावना को विकसित होने का उतना मौका नहीं मिला, किन्तु दोनों विश्वयुद्ध के बीच जर्मनी में राष्ट्रीयता की भावना विकसित होकर चरमसीमा पर पहुँच चुकी थी। भारत और चीन जैसे विशाल देशों में जहाँ राष्ट्रीय भावना की जागृति हुई। इधर हाल में दक्षिण अफ्रिका में राष्ट्रीय भावना के विकास के चलते ही उसे आजाद होने का अवसर मिला ।

राष्ट्र का अर्थ -

 राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद आधुनिक युग की एक प्रमुख भावना है। यह भावना राष्ट्र शब्द से निकला है। राष्ट्र शब्द अंग्रेजी भाषा के 'नेशन' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। नेशन शब्द भी लैटिन भाषा के 'नेशियों' शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है उत्पन्न होना या जन्म लेना। इस प्रकार राष्ट्र का रूप देने में भाषा, संस्कृति, परम्परा, धर्म आदि अनेक तत्त्व सहायक होते हैं। राष्ट्र को परिभाषित करते हुए बर्गेस ने लिखा है कि "राष्ट्र जातीय एकता में बंधी हुई वह जन समूह है जो एक अखण्ड भौगोलिक प्रदेश में निवास करता है।"

मिल के अनुसार, "मानव स्वभाव का कोई भाग तभी राष्ट्र बनता है, यदि उसके सदस्य आपस में उन सहानुभूतियों से संगठित हो, जो उनके और अन्य ऐसे ही समूहों के बीच न पायी जाय और जो उन्हें दूसरों की अपेक्षा अधिक आपसी सहयोग की ओर प्रेरित करती हो।" इस प्रकार राष्ट्र एक ऐसा जन समूह है जिसके सदस्य स्वभावतः आपस में कई प्रकार की समानताओं में बँधे होते हैं, ये समानताएँ इतनी सुदृढ़ और वास्तविक होती हैं कि वे खुशीपूर्वक एक साथ रह सकें। यदि उन्हें अलग-अलग कर दिया जाय तो वे असंतुष्ट होकर बिखर जायेंगे।

राष्ट्र और राष्ट्रीयता में अन्तर 

राष्ट्रीयता राष्ट्र की भावना से पूरी तरह सम्बद्ध है। यह एक आध्यात्मिक भावना है जो उस जन समुदाय में पाया जाता है जो एक ही नस्ल के हों, एक ही भूखण्ड पर निवास करते हों, एक भाषा का प्रयोग करते हों, लगभग एक ही धर्म के अनुयायी हों जिसका इतिहास और परम्पराएँ समान हों, आर्थिक हित भी समान हो और जो राजनीतिक एकता के समान आदर्श रखते हों। मेकाइवर का कहना है कि "कुछ मनुष्यों की एक साथ रहने की भावना राष्ट्रीयता है।" इस प्रकार राष्ट्रीयता एक परम्परागत मनुष्य समाज है, जिसमें विभिन्न व्यवसाय के लोग शामिल रहते हैं। जिनके विचार, भाव तथा स्वभाव एक से हो, जिसका जातीय मूल एक हो, जिसकी भाषा, रीति-रिवाज, सभ्यता समान हो और जो उन्हें एकता की भावना से परिचित कराता हो और जो अन्य विदेशियों से बिल्कुल भिन्न हो। -

जबकि राष्ट्र एक ऐसा जन समूह होता है जिसके सदस्य स्वभावतः आपस में कई प्रकार की समानताओं से बँधे होते हैं। ये समानतायें इतनी सुदृढ़ और वास्तविक होती हैं कि वे खुशी के साथ रह सकते हैं।

राष्ट्रीय एकता के आधार-

 हमारे देश की एकता का सबसे बड़ा आधार दर्शन तथा साहित्य है, जो सभी प्रकार की भिन्नताओं तथा असमानताओं को समाप्त करने वाला है। यह दर्शन है-सर्वसमन्वय की भावना का पोषक । चूँकि यह दर्शन किसी एक भाषा में न होकर विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों द्वारा लिखे जाने पर भी क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता है, बल्कि सम्पूर्ण देशवासियों को भाईचारे तथा सद्भाव का पाठ पढ़ाता है। विचारों की एकता किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी एकता होती है। अतएव भारतीयों की एकता के वास्तविक आधार भारतीय दर्शन एवं साहित्य है, जो अनेक भाषाओं में लिखे जाने के बाद भी अन्त में जाकर एक ही प्रतीत होते हैं।

यद्यपि हमारी देश की राष्ट्रीय भाषा ‘हिन्दी’ है, लेकिन यहाँ पर लगभग पन्द्रह भाषाएँ तथा इन सब भाषाओं की उपभाषाएँ भी विद्यमान हैं। ये सभी भाषाएँ संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त हैं एवं इन सभी भाषाओं में रचा गया साहित्य हमारी राष्ट्रीय भावनाओं से ही प्रेरित है। इस प्रकार भाषा-भेद होते हुए भी कोई समस्या पैदा नहीं होती है। उत्तर भारतीय निवासी दक्षिण भारतीयों की भाषा न समझते हुए भी उसकी भावनाओं को समझने में पूर्णतया सक्षम है। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवत् गीता, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब आदि अलग-अलग भाषाओं में रचित है, लेकिन इनमें व्यक्त की गई भावनाएँ हमारी राष्ट्रीयता को ही प्रकट करती है। चूंकि तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, नानक, तुकाराम, टैगोर, विद्यापति आदि की रचनाएँ भाषा के आधार पर एक दूसरे से  एकदम भिन्न हैं, फिर भी इनकी भावनात्मक एकता राष्ट्र के सांस्कृतिक मानस को पल्लवित करने में संलग्न है।

वर्तमान परिवेश में अब राष्ट्र का स्वरूप एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल, एक संस्कृति राष्ट्र के प्रमुख तत्व नहीं रह गया है। आज राष्ट्र निर्माण के मार्ग में एक वैसा जन समुदाय जो जान्तरिक एकता का इच्छुक हो, समन्वित जीवन मूल्य और उदार संस्कृति के विकास का प्रयत्न करता हो तभी तो आज संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी राष्ट्र की भावना मूर्त होकर राष्ट्रवाद की भावना का प्रेरणास्रोत बन गया है। अमेरिका, भारत, ब्रिटेन, रूस, जापान जहाँ विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, नस्लों एवं भाषाओं को विकसित होने का मौका मिला है। फिर भी, एक सर्वोपरि राष्ट्र के रूप में विश्व को आलोकित कर रहा है।

भारतीय वेदों, पुराणों और उपनिषदों में राष्ट्रीय एकता की भावना का बड़ा ही सुन्दर चित्रण देखने को मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार, "हम विस्तृत एवं बहुरक्षित स्वराज्य के कल्याणार्थ प्रयत्नशील रहेंगे।"

राष्ट्रीयता का मूल आधार जनता की एकता है। खजुराहो एवं कोनार्क के मंदिरों, अजंता एवं एलोरा के गुफाओं, ताजमहल की कलाकृतियों, हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाइयों के बहुआयामी एकता भारतीय राष्ट्रीयता के आधार स्तम्भ हैं। देश के पर्व, तिथि, त्योहार, भी अलग-अलग जातियों के अलग-अलग है, फिर भी उन सभी में एकता तथा सर्वसमन्वय का ही भाव प्रकट होता है। यही कारण है कि एक जाति के लोग दूसरी जाति के त्योहारों में कोई हस्तक्षेप नहीं करते, अपितु खुशी-खुशी उन्हें मनाते भी हैं। धर्म के प्रति आस्था तथा विश्वास की भावना ही हमारे देश की एकता के प्रतीक हैं तथा हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।

भले ही आज की वैज्ञानिक सुविधाओं के कारण हम अपने देश की सबसे बड़ी बाधा ऊँचे-ऊँचे पर्वतों, बड़ी-बड़ी नदियों को भी पार करने में सफल हो चुके हैं। लेकिन आज के समय में राष्ट्रीय के लोगों में एकता देखने को नहीं मिलती।

आज के अन्तर्राष्ट्रीयता के युग में कट्टर राष्ट्रीयता की जगह उदारवादी राष्ट्रीयता ने ले लिया है। राष्ट्र प्रेम की भावना हमारा सबसे बड़ा धर्म है। पंडित नेहरू के अनुसार, "हम सभी पहले अपने राष्ट्र की संतान हैं और बाद में किसी धर्म के अनुयायी या किसी क्षेत्र विशेष के निवासी ।" सुभाष चन्द्र बोस ने राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत होकर कहा था “अन्याय और जुर्म के साथ मेल करना सबसे बड़ा अपराध है।" ऋग्वेद के अनुसार, "स्वदेश प्रेम की भावना से प्रेरित होकर राम ने लक्ष्मण से कहा था कि "मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है, यह सोने की लंका मुझे नहीं चाहिये। भारत हमारी माता है, हम सभी भारत माता के संतान हैं। हमारी भाषायें भिन्न हो सकती हैं, हम विभिन्न धर्मो के अनुयायी भी हो सकते हैं किन्तु हमारे भारत की मिट्टी एक है।" भारतीयता ही हमारी राष्ट्रीयता है और यही हमारी राष्ट्रीय एकता का आधार है।

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद ने राष्ट्रीय एकता के बारे में कहा था कि "हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि हमारा एक राष्ट्र है तथा इसकी सांस्कृतिक जीवन एक है और आगे भी एक रहेगा।" भारतीय राष्ट्रीयता के आधार के बारे में महात्मा गाँधी ने कहा था कि "हम सभी अपनी मातृभूमि के लिए जीवित रहने या मरने की शपथ लें। जिस प्रकार अपने एक वृक्ष की अनगिनत पत्तियों का भी अपना अस्तित्व होता है उसी प्रकार अपनी वैयक्तिक मान्यताओं को अक्षुण्ण रखते हुए भी हम सभी अपने को एक ही मातृभूमि की संतान समझें।"

अनेकता में एकता हमारी सबसे बड़ी विशेषता है। हम सभी एक वृक्ष के विभिन्न डालियाँ और फूल हैं। जो अलग डालियों में रहकर पुष्मित और पल्लवित तो हो रहे हैं किन्तु जड़ एक है जहाँ से हमें जीवन की गति मिलती है।

राष्ट्रीयता के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले तत्त्व

1. साम्प्रदायिक भावना -

सच्चा धर्म राष्ट्रीयता के विकास में सहायक है, परन्तु उसका विस्तृत रूप उसके मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। अखण्ड भारत की यही संकुचित भावना विखंडित कर भारत और पाकिस्तान के रूप में परिणत हुआ। आज भी यह भावना जब कभी अधिक बलवती हो जाती है तो अयोध्या, कानपुर, मेरठ तथा बम्बई जैसे काण्ड का जन्म होता है।

2. जातीयता

जातीयता का उग्र रूप भी राष्ट्रीयता के विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर देती है। अपनी-अपनी जाति के हित की बातें सोचना कोई बुरी बात नहीं है, परन्तु दूसरी जाति के लोगों के साथ अन्याय करना उचित नहीं है।

3. प्रान्तीयता -

प्रान्त राष्ट्रीय जीवन का एक अंग मात्र है। राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करते समय हमें प्रदेश के हित की ही बात नहीं करनी चाहिए। भारत जैसे विशाल देश में उस प्रकार के संकुचित भावना से और भी अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है।

4. भाषावाद 

भारत विभिन्न तरह की भाषाओं का संगम स्थल है। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, फिर भी क्षेत्रीय भाषाओं के चलते कभी-कभी राष्ट्रीयता की भावना कुंठित हो जाती है।

5. विदेशों के प्रति भक्ति

 विदेशी शिक्षा, रहन-सहन या धर्म के प्रति आस्था होने के कारण कुछ लोगों में विदेशी लोगों के प्रति प्रेम एवं राष्ट्र के प्रति विद्रोह की भावना का जन्म होता है जिसके चलते कभी-कभी राष्ट्र संकट की स्थिति में आ जाता है। इतिहास इस बात का प्रतीक है कि विदेशों के प्रति प्रेम ही भारत को सदियों तक गुलाम बनाये रखा। आज भी कश्मीर की समस्या या कुछ दिन पूर्व पंजाब की समस्या इसका ज्वलंत उदाहरण है।

आधुनिक राष्ट्रीयता

 आधुनिक युग में राष्ट्रीयता की भावना का विकास ब्रिटिश शासन- काल की देन है। हम सदियों तक अंग्रेजों के गुलाम रहे। अंग्रेजों ने भारत में 'फूट डालो राज्य करों" के सिद्धान्त को अपनाकर हमारी आजादी की लड़ाई को हमसे दूर कर दिया। किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में ही महात्मा गाँधी ने 'करो या मरो' एवं 'अंग्रेजों भारत छोड़ दो' का नारा दिया। नतीजा यह हुआ कि भारत में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय लहर बिजली की तरह सम्पूर्ण भारत में फैल गयी।

हमलोग एकता के बंधन में बंधकर अंग्रेजों को 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। आज हम आजाद हैं। स्वतंत्र भारत के लोगों को आजादी एक आवश्यकता बन गयी है। यदि अकबर की धर्म निरपेक्षता अपनाने का हमने संकल्प लिया है तो दूसरी और औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता को छोड़ना भी हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है। आधुनिक राष्ट्रीयता के विकास में हमारी रेलें जो एक छोर से दूसरे छोर तक प्रति दिन आती और जाती है उसका भी महत्त्वपूर्ण योगदान है । हमारी संस्कृति एवं हमारी भाषा भी हमें राष्ट्रीयता के मजबूत बंधन में बंधने के लिए मजबूर कर रहा है। इस प्रकार हम सभी भारत माता के संतान हैं। सदियों के संघर्ष भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की याद को आज भी ताजा कर देती है।

राष्ट्रीय आन्दोलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म 28 दिसंबर, 1885 को हुआ था, लेकिन यह अचानक या आकस्मिक घटना नहीं थी। 1860 और 1870 के दशक में शुरू हुई राजनीतिक जागृति ने 1880 के दशक की शुरुआत में एक बड़ी छलांग लगाई, इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थी। भारत जिस औपनिवेशिक शासन के अधीन था, उसके चरित्र ने एक तरह से राजनीतिक जागृति को जन्म दिया। भारत सदियों से अंग्रेजों का गुलाम था इस गुलामी के बंधन को तोड़ने में हमें सदियों संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष में हमारे राष्ट्रीय नेताओं का त्याग आज भी हमें त्याग और बलिदान के लिए प्रेरित कर रहा है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जो आन्दोलन चलाया जा रहा था उसका नेतृत्व राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द जैसे समाज सुधारकों ने किया था। बाद में चलकर राष्ट्रीय आन्दोलन को संचालित करने में उग्रवादी एवं उदारवादी विचारधाराओं का जन्म हुआ। जिसके कारण गोपाल कृष्ण गोखले, बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल, श्रीमत्ति एनी बीसेन्ट आदि नेताओं की अमर कहानी आज भी हमें ताज़गी प्रदान कर रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की छत्रछाया में महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, मुहम्मद अली जिन्ना आदि नेताओं की भूमिका भी कम प्रशंसनीय नहीं है। इस स्वतंत्रता आन्दोलन में वीर भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद एवं खुदी राम बोस का बलिदान भी काफी महत्त्वपूर्ण है। इकबाल का 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा', बंकिम चन्द्र चटर्जी का 'वन्दे मातरम्' एवं रविन्द्र नाथ ठाकुर का जन गन मन अधिनायक की भावना ने भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नवीन गति प्रदान किया था। जिसके कारण 'जन गन मन आज हमारा राष्ट्रीय गान के रूप में है। लोकनायक तिलक ने ठीक ही कहा था कि "स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। हम इसे लेकर रहेंगे।"

सुभाष चन्द्र बोष का "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" नारा आज भी हमें त्याग और बलिदान के लिए प्रेरित कर रहा है। इस प्रकार एक लम्बे संघर्ष के उपरान्त 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होकर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में परिणत हुआ । हमारा लक्ष्य -आज भारत आजाद है। आजादी के बाद हम ने 26 जनवरी, 1950 ई० को अपना संविधान का निर्माण किया। जाम चुनाव के माध्यम से लोकतांत्रिक पद्धति का सहारा लेकर हमने अपनी शासन व्यवस्था कायम की। यहाँ विभिन्न भाषा-भाषी के लोग रहते हैं जिनका सम्प्रदाय भी अलग-अलग है। किन्तु संकट की घड़ी में सम्पूर्ण भारतवासी ने एक होकर मुल्क की रक्षा की है। बेकारी की समस्या, बढ़ती हुई गरीबी, जनाधिक्य का प्रभाव हमारी पंचवर्षीय योजनाओं को कुठित कर दिया है। कभी क्षेत्रीयतावाद तो कभी साम्प्रदायिकतावाद की समस्या हमें पंजाब एवं कश्मीर जैसे समस्या को जन्म देने में सहायक हो जाता है जिसका अन्त होना चाहिये। कुछ मुट्ठी भर लोग देश को तोड़ने एवं बदनाम करने में लगे रहते हैं, हमें उनका प्रतिवाद करना होगा। गरीबी एक पाप है अतएव उसका भी अंत कठिन परिश्रम से होना चाहिए। नेहरू ने ठीक ही कहा था- 'आराम हराम है'। जाज बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमारे देश में व्यापार करने आ रही है, किन्तु हमें सावधान होकर उनके साथ व्यापार करना होगा। जिससे कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की कहानी की पुनरावृत्ति न होने पाय। कड़ी मेहनत , दूर दृष्टि, पक्का इरादा को आधार मानकर हम विकास के मार्ग पर पहुँचने का संकल्प लें। स्वतंत्रता एवं अखण्डता की रक्षा करना हमारा पावन कर्त्तव्य होगा।

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